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* भाव- -विशुद्धि में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ २४७
निर्जरा के मूल कारण : द्वादशविध तप
तप के बारह प्रकार कहे हैं, जोकि निर्जरा के मूल कारण हैं । तप के बारह प्रकारों में छह बाह्य तप हैं - अनशन, ऊनोदरी, वृत्ति-संक्षेप, रस-परित्याग, कायक्लेश और प्रतिसंलीनता । कोई-कोई प्रतिसंलीनता के बदले ' विविक्तशय्यासना' कहते हैं। परन्तु दोनों का तात्पर्य एक ही है । वृत्ति-संक्षेप के बदले कहीं-कहीं भिक्षाचारी तप है। आभ्यन्तर तप छह प्रकार का है - प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, ध्यान और व्युत्सर्ग ( कायोत्सर्ग ) । इनके विषय में विस्तार से विश्लेषण हम आगे के प्रकरण में करेंगे । १
उत्कृष्ट
निर्जरा : कैसे-कैसे और किस क्रम से ? निर्जरा की वृद्धि उपशमभाव और तप की क्रमशः वृद्धि होने से होती है तथा धर्मध्यान और शुक्लध्यान से तो निर्जरा की विशेष वृद्धि होती है । ' तत्त्वार्थसूत्र' के अनुसार- प्रथम उपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति के समय त्रिकरणवर्त्ती विशुद्ध परिणाम सहित मिथ्यादृष्टि कों जो निर्जरा होती है, उससे असंयत ( अविरति सम्यग्दृष्टि (चतुर्थ गुणस्थान में ) के असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। उससे देशविरति श्रावक (पंचम गुणस्थान) के असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। उससे महाव्रती मुनिजनों के असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। उनसे अनन्तानुबन्धी कषाय के वियोजक अर्थात् उसे अप्रत्याख्यानादिरूप में परिणत करने वाले के असंख्यातगुणी निर्जरा होती है। उनसे दर्शनमोह का क्षय करने वाले के असंख्यातगुणी और उनसे असंख्यातगुणी निर्जरा उपशम श्रेणी वाले तीन गुणस्थानवर्ती जीवों के होती है। उनसे उपशान्तमोह नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती जीवों के असंख्यातगुणी और उनसे असंख्यातगुणी निर्जरा होती है - क्षपक श्रेणी वाले तीन गुणस्थानवर्ती जीवों के तथा उनसे सयोगीकेवली के असंख्यातगुणी और उनसे भी असंख्यातगुणी निर्जरा अयोगीकेवली के होती है । इस प्रकार चतुर्थ गुणस्थान और उससे ऊपर-ऊपर के गुणस्थानों में क्रमशः असंख्यात असंख्यातगुणी
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(ग) निर्जरा वेदनाविपाक इत्युक्तम् । सा द्वेधा-अबुद्धिपूर्वा कुशलमूला चेति । तत्र नरकादिषु गतिषु कर्मफल-विपाकजा अबुद्धिपूर्वा सा अकुशलानुबन्धा । परीषह-जये कृते कुशलमूला सा शुभानुबन्धा निरनुबन्धा चेति । इत्येवं निर्जराया गुणदोष-भावनं निर्जरानुप्रेक्षा ।
- सर्वार्थसिद्धि ९/७/४१७
१. (क) उत्तराध्ययनसूत्र, अ. ३०, गा. ७-८, ३१ (ख) शान्तसुधारस, निर्जराभावना, श्लो. ४-५
(ग) तत्त्वार्थसूत्र, अ. . ९, सू. १९-२0