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ॐ भाव-विशुद्धि में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ * २५१ ॐ
निवास-स्थान लोक की सीमा में हैं। यह वैविध्य और वैचित्र्य राग-द्वेषादि से बद्ध कर्मों के उदयजनित परिणाम हैं। इस प्रकार से लोकानुप्रेक्षण करके साधक स्वयं को इससे सतत तटस्थ-समत्वस्थित-बनाये रखे। न ही इस पर राग करे, न ही द्वेष। सभी प्राणियों तथा पौद्गलिक वस्तुओं, प्राकृतिक अवस्थाओं पर समत्व की अनुभूति करे।
लोकानुप्रेक्षा से लाभ 'शान्तसुधारस' के अनुसार यह लोक विविधताओं का रंगमंच है। इसमें पुद्गल और जीवरूपी नट नानारूप बनाकर नृत्य कर रहे हैं। (अपने-अपने कर्मानुसार जीव अपना-अपना पार्ट अदा कर रहे हैं।) काल, स्वभाव, नियति, कर्म
और पुरुषार्थ, ये सब अपने-अपने वाद्यों (वादों) के निनाद द्वारा उन्हें नचा रहे हैं। स्पष्ट है-इस लोक में अनेक संस्थान हैं, उनके विभिन्न रूप में परिणमन होते रहते हैं, पर्याय बदलते रहते हैं। लोकानुप्रेक्षा से उन सबमें समत्व की अनुभूति करके आसक्ति और घृणा, अरुचि-रुचि, अहंकार और हीन दैन्यभावों पर विजय प्राप्त की जा सकती है। साथ ही-“इस प्रकार भिन्न-भिन्न रूप से अनुचिन्तित = अनुप्रेक्षित लोकविज्ञ जनों के लिए मन की स्थिरता = एकाग्रता (प्रज्ञा की स्थिरता) का हेतु बनता है। मानसिक स्थिरता होने पर अथवा प्रज्ञा की स्थिरता होने पर अर्थात् मन और प्रजा के अन्य बाह्य विषयों से हटकर स्थिर हो जाने पर अनायास ही आत्म-हितकर अध्यात्म सुखों की प्राप्ति सुलभ हो जाती है।'' 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में कहा गया है-जो साधक एकमात्र उपशमस्वभाव (साम्यभाव) से युक्त होकर लोकस्वभाव का ध्यान = अनुप्रेक्षण या चिन्तन करता है, वह (लोक के वैविध्य के मूल कारणभूत) कमपुँज का क्षय करके उसी लोक का चूड़ामणि (लोक के अग्र भाग पर स्थित मुक्तात्मा) हो जाता है। वहाँ अक्षय, अनन्त, अचल, अनुपम, अव्याबाध, स्वाधीन ज्ञानानन्दरूप सुख का अनुभव करता है। लोक के स्वरूप का चिन्तन करने से तत्त्वज्ञान की भी विशुद्धि होती है।२ १. (क) ‘अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ८५
(ख) 'शान्तसुधारस, लोकभावना, संकेतिका नं. ११' से भाव ग्रहण २. (क) रंगस्थानं पुद्गलानां नटानां, नानारूपैर्नृत्यतामात्मनां च।
कालोद्योग-स्वभावादि भावैः, कर्मातोद्यैर्नर्तितानां निजात्मा ॥६॥ ..' एवं लोको भाव्यमानो विविक्त्या, विज्ञानां स्यान्मानस-स्थैर्य-हेतुः। स्थैर्ये प्राप्ते मानसे चात्मनीना, सुप्राप्यैवाध्यात्म-सौख्य-प्रसूतिः॥७॥
-शान्तसुधारस, लोकभावना ६-७ . (ख) एवं लोयसहावं जो झायदि उवसमेक्कसब्भावो।
सो खविय कम्मपुंजं तस्सेव सिहामणी होदि॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा २८३