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8 २४८ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
निर्जरा होती है। निर्जरानुप्रेक्षक को इस पर चिन्तन करके कर्मनिर्जरा करने का यथाशक्ति पुरुषार्थ करना चाहिए। अधिकाधिक निर्जरा के अवसर __'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में बताया गया है कि “जो साधक दुर्वचनों को तथा अन्य साधर्मिकों द्वारा किये गए अवमान-अनादर को और देव आदि द्वारा किये गए उपसर्ग को समभावपूर्वक शान्ति और धैर्य के साथ सहन करता है और इस प्रकार कषायरूप शत्रुओं को जीत लेता है, उसे विपुल कर्मनिर्जरा होती है। जो साधक उपसर्ग और तीव्र परीषह आने पर यों मानता है कि मैंने पूर्व जन्म में जो पापकर्म संचित किया था, उसका यह फल है, इसलिए व्याकुल न होकर इसे शान्तिपूर्वक भोग लूँ। जैसे किसी ने किसी साहूकार से कर्ज लिया हो तो साहूकार के द्वारा माँगने पर उसे दे देना चाहिए, उसमें व्याकुलता क्यों की जाए? इसी प्रकार कर्मों का कर्ज मानकर समभावपूर्वक चुकता कर देना चाहिए। ऐसा चिन्तन करने से बहुत ही कर्मनिर्जरा होती है।"२ पापिष्ट अर्जुनमाली ने निर्जरानुप्रेक्षा से मोक्ष प्राप्त किया ___राजगृहनिवासी यक्षाविष्ट अर्जुनमाली ने लगभग ११४१ व्यक्तियों की हत्या कर डाली थी। परन्तु भगवान महावीर को वन्दना करने हेतु जाते हुए सुदर्शन श्रमणोपासक के निमित्त से उसका यक्षावेश दूर हो. गया। वह भी सुदर्शन के साथ भगवान को वन्दन करने गया। उनका धर्मोपदेश सुना और पूर्वबद्ध पापकर्मों का क्षय करने के लिये कमर कस ली। मुनि-दीक्षा लेकर उसने यावज्जीवन वेले-बेले तप करने की प्रतिज्ञा ली। पारणे के दिन नगरी में भिक्षा के लिये जाता, तब उसे देखकर लोग अर्जुन मुनि की भर्त्सना, ताड़ना, तर्जना, आक्रोश, निन्दा एवं अवमानना करते थे। परन्तु अर्जुन अनगार इन सब को समभाव से, शान्ति और धैर्य के साथ सहन करते हुए इस प्रकार की निर्जरानुप्रेक्षा करते थे-“मैंने तो इनके सम्बन्धियों की हत्या कर दी थी, परन्तु ये तो थोड़े-से में ही छुटकारा देकर भरपाई कर रहे हैं। ये मेरा
१. (क) कार्तिकेयानुप्रेक्षा (निर्जरानुप्रेक्षा), गा. १०५-१०८ (ख) सम्यग्दृष्टि-श्रावक-विरतानन्त-वियोजक-दर्शनमोह-क्षपकोपशमकोपशान्तमोह
क्षपक-क्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुण-निर्जराः। -तत्त्वार्थसूत्र, अ. ९, सू. ४५ २. जो वि सहति दुव्वयणं, साहमिय-हीलणं च उवसग्गं।
जिणिऊण कसायरिउं, तस्स हवे णिज्जरा विउला ॥१०९॥ . रिणमोयणुव्व मण्णइ जो उवसग्गं परीसहं निव्वं । पावफलं मे एदे मया वि संचिदं पुव्वं ॥११०॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा १०९-११०