________________
.. ११८ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ *
ईर्यासमितिपूर्वक गमन में सावधानी
आशय यह है कि ईर्या (चर्या) की शुद्धि के लिए गमन करने से पूर्व यह सोचना चाहिए कि वहाँ क्यों गमन करना है अर्थात् उसके गमन करने का प्रयोजन क्या है ? इस गमन से ज्ञानादि रत्नत्रयरूप शुद्ध धर्म में कहीं आँच तो नहीं आएगी? यह गमन निरुद्देश्य तो नहीं है? क्या गमन करना अनिवार्य है या क्या गमन किये बिना काम नहीं चल सकता? किस क्षेत्र के लिए गमन करना है? क्या इस समय वहाँ जाने का उपयुक्त समय है? कितने समय के लिए गमन करना है ? ताकि साधक की अन्य आवश्यक क्रियाओं में बाधा न आए। किस विधि से, किस प्रकार से गमन करना है? इत्यादि प्रश्नों के प्रकाश में सम्यक चर्या (ईर्या) का विचार करेगा तो वह अनायास ही संकर (कर्मों के आस्रव का निरोध) कर सकेगा। अन्यथा अविचारित और अव्यवस्थित ढंग से गमनादि चर्या करने से कर्म-संवर के बदले कर्मों का आस्रव ही उपार्जित कर बैठेगा।
साथ ही आत्मार्थी-साधक को गमनादि चर्या के समय यह भी सोचना आवश्यक है कि कहीं इस गमन से, गन्तव्य स्थल पर जाने से आत्मा में राग-द्वेष, कषाय-कालुष्य तो नहीं बढ़ जाएगी? या पंचेन्द्रिय विषयों के पोषण से आसक्तिवश कर्मबन्ध तो नहीं हो जाएगा? आध्यात्मिक विकास में या आत्म-गुणों में क्षति पहुँचती हो तो उक्त गन्तव्य स्थल या क्षेत्र का गमन वर्जनीय समझना चाहिए। चर्या करते समय साधक को दशवैकालिकसूत्र की चेतावनी ___ 'दशवैकालिकसूत्र' में साधु-साध्वी को गमन सम्बन्धी कुछ आवश्यक निर्देश दिये गए हैं। वे इस प्रकार हैं-साधक भिक्षाकाल या अन्य चर्या सम्बन्धी काल उपस्थित होने पर असम्भ्रान्त और अमूर्छित होकर गमन करे और क्रमशः आहार-पानी की गवेषणा करे। वह ग्राम या नगर में · · · चर्या करते समय मन्द-मन्द, अनुद्विग्न एवं अविक्षिप्त चित्त से युक्त होकर चले। अपने गन्तव्य पथ
पिछले पृष्ठ का शेष
दव्वओ खेत्तओ चेव कालओ भावओ तहा। जयणा चउव्विहा वुत्ता तं मे कित्तअओ सुण॥६॥ दव्वओ चक्खुसा पेहे, जुगमित्तं च खेत्तओ। कालओ जाव रोएज्जा, उवउत्ते य भावओ॥७॥ इदियत्थं विवज्जित्ता सज्झायं चेव पंचहा। तम्मुत्ती तप्पुरत्कारें उवउत्ते रियं रिए॥८॥ -उत्तराध्ययनसूत्र विवेचन, अ. २४, गा. ४-८
(आगम प्रकाशन समिति, ब्यावर), पृ. ४१२