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ॐ २३२ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ 8
(७) आसवानुप्रेक्षा : क्यों, क्या और कैसे ? .... आम्रव का स्वरूप, प्रकार और अनिष्टकारकता
नीतिकारों का कथन है-“उपायं चिन्तयन् प्राज्ञः, अपायमपि चिन्तयेत्।" अर्थात् वुद्धिमान् व्यक्ति को उपाय के साथ अपाय यानी साधक के साथ बाधक तत्त्व का भी चिन्तन करना चाहिए। आस्रव कर्ममुक्ति (मोक्ष) की यात्रा में बाधक तत्त्व है, अपाय है, अनिष्ट है। वह जीव को जन्म-मरणरूप संसार के चक्र में भटकाता है। आम्रव कर्मों को आकर्षित करके आत्मा के साथ संयोग सम्बन्ध से श्लिष्ट कराने वाला है
और कर्मों का ज्यों-ज्यों जत्था बढ़ता जाता है, त्यों-त्यों संसार वृद्धि होती जाती है। आस्रव की परिभाषा की गई है-मन-वचन-काया के शुभ-अशुभ योग (प्रवृत्ति या व्यापार) द्वारा जीव जो शुभ-अशुभ कर्मों को ग्रहण = आकर्षित करते हैं, वह आम्नव है। वस्तुतः जीव के द्वारा कर्मों का आकर्षण तो त्रिविध योगों द्वारा हो जाता है। इसीलिए 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में कहा गया है-मन-वचन-कायरूप योग अर्थात् जीव प्रदेशों का परिस्पन्दन (प्रकम्पन या हलचल) विशेष ही आस्रव है, जो मोहकर्म के उदय से युक्त (मिथ्यात्व-कषायादि सहित) भी हैं और मोहोदय से रहित भी हैं। गुणस्थान क्रम के अनुसार सूक्ष्म सम्पराय नामक दसवें गुणस्थान तक यथासम्भव मोहोदयरूप-मिथ्यात्व-कषायों से युक्त आम्नव रहता है, जो साम्परायिक आम्रव कहलाता है, उससे ऊपर तेरहवें गुणस्थान तक मोहोदयरहित (योग) है, उस आम्रव को ईर्यापथ आस्रव कहते हैं। आत्म-प्रदेश जब मोहोदय (राग-द्वेषादि) से चंचल होते हैं, उन्हें भावानव कहा जाता है और जो पुद्गल वर्गणाएँ कर्मरूप में परिणत होती हैं, उन्हें द्रव्यास्रव कहा जाता है। जीव के लिये सबसे अधिक खतरनाक अनिष्टकारक मोहोदययुक्त आस्रव साम्परायिक आस्रव है।' साम्परायिक आस्रव से होने वाली आत्म-गुणों की भंयकर क्षति
पर्वोक्त त्रिविध योगों की जहाँ चंचलता होती है, वहाँ सम्यग्ज्ञान भी छिप जाता है। निराकुलतारूप वास्तविक आत्मिक-सुख भी पलायित हो जाता है, अपने अस्तित्व (आत्मा) का बोध भी लुप्त हो जाता है, अपनी आत्म-शक्ति को यथार्थ दिशा में प्रकट करने का भान भी नहीं रहता। कभी-कभी मन-वचन-काया से चंचलता की तरंगें इतनी उठती हैं कि व्यक्ति त्रैकालिक सत्य को भूलकर आस्रवों के प्रवाह में वह जाता है।२ 'शान्तसुधारस' में कहा गया है-“जिस प्रकार चारों १. (क) जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४, बोल २१२, पृ. ३६० . (ख) मण-वयण-कायजोया जीव-पयेसाण फंदण-विसेसा।
• मोहोदएण जुत्ता, विजुदा वि य आसवा होंति॥ -कार्तिकेयानुप्रेक्षा, गा. ८८ विवेचन २. 'शान्तसुधारस, संकेतिका नं. ७' (मुनि राजेन्द्रकुमार) से भाव ग्रहण, पृ. ३३