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आत्म- रमण में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ २३१
शक्ति का विकास कर सकता है, अनन्त आत्मज्ञान-दर्शन, आत्मिक आनन्द और आत्मिक बलवीर्य का विकास कर सकता है।
कार्मणशरीर का रहस्य जान लेने पर
बन्ध भी कर सकता है, संवर भी
दूसरे सूक्ष्म शरीर का नाम है - कार्मणशरीर । इस शरीर के रहस्यों को जान लेने पर व्यक्ति कर्मबन्धन से मुक्त हो सकता है और रहस्यों से अनभिज्ञ व्यक्ति राग-द्वेष, कषाय आदि के कारण कर्मों को अधिकाधिक आकर्षित कर बन्ध कर सकता है। कारण यह है कि हमारे शरीर में दो भाग हैं - एक भाग है लौकिकता का तथा दूसरा है लोकोत्तरता का । लौकिकता के भाग का विकास अधिक हुआ है, लोकोत्तरता का कम । हमारे शरीर में ऐसे केन्द्र हैं, जिनके जाग्रत कर देने पर कामवासना, राग-द्वेष, मोह, कषाय आदि की वृद्धि हो जाती है। इसके विपरीत हमारे शरीर में ऐसे भी केन्द्र हैं, जिनके विकसित करने पर कामना, वासना, राग-द्वेषादि कम होते जाते हैं । इसी अनुप्रेक्षा के अभ्यास करते रहने से एक दिन चेतना का ऊर्ध्वारोहण हो जाता है, राग-द्वेष विलय हो जाता है । किन्तु लोकोत्तरता का वह भाग सुषुप्त है, उसे जाग्रत करने पर ही व्यक्ति वीतराग, सर्वज्ञ या राग-द्वेषमुक्त त्रिकालदर्शी हो सकता है । १
सनत्कुमार चक्रवर्ती की अशुचित्वानुप्रेक्षा
सनत्कुमार चक्रवर्ती बहुत ही रूपवान थे। उन्हें अपने शरीर - सौन्दर्य पर गर्व था। बाह्मण वेषधारी देव के मुख से अपनी प्रशंसा सुनकर तो वे और भी अहंकारग्रस्त हो गए। किन्तु अब वह देव राजसभा में सिंहासनासीन सनत्कुमार चक्रवर्ती के पास आए तो उनका माथा ठनका। देव ने कहा कि अब पहले जैसा रूप नहीं रहा, शरीर रोगग्रस्त हो गया। पीकदानी में थूककर देखा तो रोग के कीटाणुं कुलबुला रहे थे, उनसे महान् दुर्गन्ध उठ रही थी । चक्रवर्ती ने यह देखकर अशुचित्वानुप्रेक्षा से अपने को भावित किया। संसार - विरक्त होकर तपस्याराधना की। शरीर के प्रति मोह छूट जाने तथा तैजस् कार्मणशरीर से कर्मबन्धन के कारणों से सावधान रहने से उनका शरीर और शरीर से सम्बद्ध पदार्थों के प्रति मोह छूट गया। समभावपूर्वक शरीर में हुए रोगों की पीड़ा को सहने से वे अशुचित्वभावना के प्रभाव से सदा-सदा के लिए शरीर और जन्म-मरणादि को छोड़कर वे सिद्ध-बुद्ध-मुक्त हो गए। २
(१. 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण
३. त्रिषष्टिशलाका पुरुष चरित्र, द्वितीय भाग से संक्षिप्त