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ॐ २३६ 8 कर्मविज्ञान : भाग६ ®
तपस्या, प्रतिपक्षभावना या चित्त की निर्मलता में पुरुषार्थ करने से आम्रव की शक्ति क्षीण हो जाती है, आत्म-म्वरूप की अनुभूति हो सकती है। समुद्रपाल मुनि द्वारा आमवानुप्रेक्षा से कर्ममुक्ति ___ चम्पानगरी के पालित श्रावक का पुत्र समुद्रपाल एक दिन अपने महल के झरोखे में बैठा नगरचर्या देख रहा था। तभी उसकी दृष्टि मृत्युदण्ड के चिह्नों से युक्त वध्यभूमि की ओर ले जाते हुए एक चोर पर. पड़ी। उस चोर को देखकर समुद्रपाल के मन में विचित्र ऊहापोह होने लगा। वह वैराग्यभाव से युक्त होकर स्वयं मन ही मन कहने लगा-“अहो ! अशुभ कर्मों (अशुभ आम्रवों) के कैसे कटु फल होते हैं ? यह मैं प्रत्यक्ष. देख रहा हूँ।" इस प्रकार आम्रवों के परिणामों पर गहन चिन्तन में डूबते-उतराते समुद्रपाल को जाति-स्मरण ज्ञान हो गया। अतः उसने विरक्त होकर जैन मुनि दीक्षा अंगीकार कर ली। फिर तप-संयम से आत्मा को भावित करते हुए पुण्य-पाप (शुभ-अशुभरूप) कर्माम्रबों को नष्ट करके सदा-सदा के लिए कर्मों से मुक्ति प्राप्त कर ली। यह था आनवानुप्रेक्षा का सुपरिणाम !२
(८) संवरानुप्रेक्षा : स्वरूप, लाभ और उपाय कर्मों से आत्मा की रक्षा करना संवर है .
आगमों का कथन है कि “समस्त इन्द्रियों (और नोइन्द्रिय = मन) को सुसमाहित करके आत्मा की सततं रक्षा करनी चाहिए। अरक्षित आत्मा जातिपथ (जन्म-मरणादिरूप संसारमार्ग) को प्राप्त करती है, जबकि सुरक्षित आत्मा समस्त दुःखों से मुक्त हो जाती है। आत्मा की रक्षा कर्मों को आते हुए रोकने से हो सकती है। कर्म जिन द्वारों से आत्मा में प्रविष्ट होते हैं, उन द्वारों को बंद कर देने से आत्मा की रक्षा होती है। इसी का नाम संवर है। आत्मा में पहले के अनन्त-अनन्त कर्म भरे हुए हैं, अब नये कर्मों को भरना बंद कर देने से आत्मा की एक ओर से रक्षा हो जाती है।
१. 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ६१ २. देखें-उत्तराध्ययनसूत्र का २१वाँ समुद्रपालीया अध्ययन. गा. ९-१०. २४ ३. अप्पा खलु सययं रखियब्वो, सव्विंदिएहिं सुसमाइएहिं। . अरखिओ जाइपहं उवेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ॥
-दशवकालिक, विविक्तचरिया बीआचूलिआ १६ ।