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® आत्म-रमण में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ * २२९ 3
अशुद्ध बनाते हैं, अपवित्र शरीर पर शृंगार करना विष्टा पर सुगन्धित पदार्थ लगाने के समान है।
अशुचित्तानुप्रेक्षा का विधायकरूप आशय यह है कि शरीर को कितना ही स्वच्छ करो, वह शुद्ध नहीं होता; मूढ़ मानव प्रतिदिन इस अशुद्ध-अपवित्र शरीर को प्रत्यक्ष देखता हुआ भी विरक्ति का कारण होने पर भी, इस पर आसक्ति, अनुरक्ति करता है; इस शरीर में शुद्धि का भाव आरोपित करता है। वह शरीर को भ्रान्तिवश सुन्दर, बलवान् और निर्मल समझकर उस पर मोह, अहंकार और मद करता है, जिससे अशुभ कर्मों का बन्ध होता है। अतः आत्म-भाव के प्रति उपेक्षा करके अशुचि एवं असुन्दर शरीर के पोषण, रक्षण में अपनी सर्वशक्तियों को लगा देना मनुष्य की सबसे बड़ी अज्ञानता है। अतः चाहे अपना शरीर हो या दूसरे का, जब भी शरीर के प्रति आकर्षण (राग) जागे, तुरन्त अशुचित्वानुप्रेक्षा से उसे रोकना, संवर का कारण हो जायेगा
और इस शरीर से धर्म-पालन करने में आते हुए या आने वाले कष्टों, परीषहों या उपसर्गों को समभाव से सहना, सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रयरूप सद्धर्म में पुरुषार्थ करना ही अशुचित्वानुप्रेक्षा का विधायकरूप है। इसीलिए 'कार्तिकयानुप्रेक्षा' में कहा गया है-जो अशुचित्वानुप्रेक्षक भव्य स्त्री आदि के देह (पर-देह) से विरक्त होता हुआ, अपने देह पर भी अनुराग नहीं करता; अर्थात् इस शरीर के अशुचित्व का दर्शन करके ममत्व से मुक्त होकर परम शुद्ध आत्मा (परमात्मा) सनातन, शिव आत्मा का दर्शन करता हैं, शरीर के प्रति आसक्ति का उन्मूलन करके अपने स्वरूप में अवस्थित होता है, आत्मारूपी शुद्ध नदी में स्नान-अवगाहन करता है, उसी की अशुचित्वानुप्रेक्षा सफल होती है।
१. (क) जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४, बोल ८१२. पृ. ३६५-३६६ . (ख) दुग्गंधं वीभत्थं कलिमल-भरिदं अचेयणा मुत्तं। सडण-पडण-सहावं देहं इदि चिंतये णिच्वं॥
-बा. अ. ४४ (ग) द्रव्यसंग्रह टीका ३५/१०९
(घ) सर्वार्थसिद्धि ९/७/४१६ . २. (क) जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४, बोल ८१२, पृ. ३६६
(ख) 'संयम कब ही मिले?' (आ. भद्रगुप्तविजय जी) से भाव ग्रहण, पृ. ५४ (ग) जो परदेहविरत्तो णियदेहे ण य करेदि अणुरायं। अप्पसरूवि सुरत्तो असुइत्ते भावणा तस्स॥
-कार्तिकेयानुप्रेक्षा ८७ (घ) सम्यग्दर्शनादि · पुनर्भाव्यमानं जीवस्यात्यन्तिकी शुद्धिमाविभवियतीति तत्वतो भावनमशुचित्वानुप्रेक्षा।
-सर्वार्थसिद्धि ९/७/४१६