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* कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ * २१९ * .
समूह में रहता हुआ भी अकेला रहे तो कैसे रहे ? इस प्रश्न को भगवान महावीर ने दो दृष्टियों से समाहित किया हैनिश्चयदृष्टि से और व्यवहारदृष्टि से। यदि एक ही दृष्टिकोण से देखें तो बात नहीं बनती। जीवनयात्रा, संयमयात्रा एवं जीवन-निर्वाह, पारस्परिक विकास में निमित्त-सापेक्षता, पारस्परिक मार्गदर्शन आदि की दृष्टि से व्यवहारमार्ग को छोड़कर आदमी जी नहीं सकता। इसलिए वह संघ, समाज, परिवार, गण या राष्ट्र आदि घटकों के साथ जुड़कर रहे, किन्तु रहे आध्यात्मिक-नैतिक-धार्मिक विकास-सापेक्ष दृष्टि से। जहाँ भी समूह के साथ जुड़ने पर उसके सम्यग्दर्शन-सम्यग्ज्ञानसम्यक्चारित्र, आध्यात्मिक विकास एवं आत्म-धर्म में बाधा आती है, उसके व्रतों, नियमों को क्षति पहुँचती हो, वहाँ वह अप्रमत्त एवं सावधान होकर तुरंत एकत्व की अनुभूति का अवलम्बन ले। समूह के प्रति कर्तव्य-पालन में किसी प्रकार की शिथिलता न आने दे। अहंकार-ममकार, राग-द्वेष, मोह, आसक्ति-घृणा आदि द्वन्द्वों के समय वह एकत्वानुप्रेक्षानुसार चले। अतः निश्चयनय भी एक सचाई है। जहाँ कर्म-आस्रव और कर्मबन्ध का कारण उपस्थित हो, वहाँ वह अकेलेपन का अनुभव करे। अतः समुदाय में रहना भी अच्छा है और अकेले में रहना भी। संघ या समूह में रहता हुआ भी व्यक्ति द्रव्य और भाव से अकेलेपन का अनुभव कर सकता है। समूह में रहते हुए भी वह अपने अस्तित्व को नहीं खोता।
. एकत्वानुप्रेक्षक कत्तळ और दायित्व से भागे नहीं . परन्तु एकान्त एकत्व पल्ला पकड़कर चलने वाला व्यक्ति यह न सोचे कि समाज, राष्ट्र, धर्मसंघ या अमुक घटक के प्रति कोई कर्तव्य या दायित्व नहीं है। उसका चिन्तन ध्येयानुकूल यह होगा कि ऐसी परिस्थिति में मेरा क्या दायित्व है ? क्या कर्तव्य है ? मेरा धर्म क्या है ? यद्यपि भीड़ जिधर जा रही है, उधर वह आँखें मूंदकर नहीं चलेगा, अनुसरण की वृत्ति नहीं रखकर कभी-कभी प्रतिस्रोतगामी भी होगा। वह यह नहीं कहेगा-अमुक व्यक्ति या समाज क्या करता है, क्या नहीं? इस दृष्टि से वह न तो भीड़ के प्रवाह में बहेगा, न ही गतानुगति होगा और न स्थिति-स्थापक। वह आत्म-स्वभावगत ध्येय के अनुरूप स्व-कर्तव्य का पालन करेगा। परन्तु रहेगा दोनों स्थितियों में अप्रमत्त।
१. (क) “संयम कब ही मिले?' (आ. भद्रगुप्तविजय जी) से भाव ग्रहण, पृ. ४८-४९ .... (ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. ३७, ३९