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ॐ १९४ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ *
वह जल में नौका की तरह है। अर्थात वह संसार-सागर (भवजलधि) को पार कर जाता है, उसमें डूबता नहीं।" इसीलिए भावना को भवनाशिनी (संसार के जन्म-मरणादि को नष्ट करने वाली) कहा गया है। चित्तशुद्धि एवं आध्यात्मिक विकास के लिए ये १२ भावनाएँ परम सहायक सिद्ध हुई हैं।' भावना की सफल साधना के लिए सावधानी और अर्हताएँ
परन्तु प्रश्न यह है कि भावना कब और कैसे भवतारिणी नौका बन सकती है? इस भावनायोगरूप नौका का उपयोग कैसे हो? इसमें क्या-क्या सावधानियाँ रखनी जरूरी हैं ? इसका विवेक सर्वप्रथम साधक को होना चाहिए। ' __सर्वप्रथम साधक को चाहिए कि भावना का उद्देश्य शुद्ध हो, आत्मावलोकन हो, क्योंकि ये सभी भावनाएँ संवेग, वैराग्य, निर्वेद, भावशुद्धि के लिए आत्मा और पर-पदार्थों के संयोग पर गहराई से मनन-मन्थन करने के लिए हैं। इसलिए, कर्ममुक्ति की दृष्टि से ही इनका बार-बार चिन्तन किया जाए। भावना करते समय उस भावना से साधक को भावित (तन्मयतापूर्वक ओतप्रोत) हो जाना चाहिए। भावित होने पर ही उस भावना का वास्तविक प्रतिफल प्राप्त होता है। आगमों में 'भावितात्मा' शब्द का प्रयोग और उसकी भौतिक-आध्यात्मिक शक्तियों और अर्हताओं का वर्णन आता है। धैर्य, एकाग्रता, तन्मयता एवं तीव्र अध्यात्मलक्षी भावधारा प्रवाहित होने पर ही भावितात्मा बनकर साधक अभीष्ट सिद्धि प्राप्त कर सकता है। अर्थात् भावना से भावित होने पर व्यक्ति जो भी होना चाहता है, हो जाता है, जो भी घटित करना चाहता है, वह घटित हो जाता है। मन को, स्वभाव को जिस रूप में ढालना चाहता है, ढाल सकता है। मन के तथा स्वभाव के बदलने पर शरीर और उसकी क्षमताएँ, इन्द्रियों की क्षमता की उपलब्धियाँ भी प्राप्त होती हैं। बशर्ते कि व्यक्ति की भावनाएँ अवचेतन मन तक सघनता से पहुँच जाएँ। कई कच्चे और फलाकांक्षी साधक क्रोधादि न करने का भावनात्मक संकल्प तो ले लेते हैं, किन्तु भावना को अन्तर्मन तक नहीं पहुंचा पाते, इसलिए वे बार-बार अपने संकल्प से भ्रष्ट हो जाते हैं, यह अनेकाग्रता का ही परिणाम है। वे अपनी भावना में तन्मय, एकाग्र एवं तीव्रतायुक्त नहीं हो पाते। वह भावना फिर अनुप्रेक्षा का रूप नहीं ले पाती।
१. (क) देखें-भगवतीसूत्र (ख) भावणाजोग-सुद्धप्पा जले णावा व आहिया।
नावा य तीरसम्पन्ना, सव्वदुक्खा तिउट्टइ।। (ग) भावना भवनाशिनी।
-सूत्रकृतांग, श्रु. १, अ. १५, गा. ५ २. (क) 'जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ४' में बोल ८१२, पृ. ३५५-३५६
(ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. ६-७