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.* २०२ * कर्मविज्ञान : भाग ६ *
देता है; किन्तु गहराई में उतरकर देखा जाए तो वह इस नियम को भूल जाने के कारण दुःखी होता है। जब व्यक्ति क्षणस्थायी शरण और त्राण को ही त्रैकालिक शरण और त्राण मान लेता है। यह व्यक्ति की मूढ़ता है कि जो स्वयं अन्त तक शरण और त्राण देने में समर्थ नहीं है, उन्हीं परिवार, समाज, राज्य, सत्ताधीश, धनिक आदि को त्रैकालिक शरणदाता और त्राणदाता मान लेता है; जो स्वयं सहायता और सुरक्षा के लिए दूसरों का मुँह ताकते हैं। इसीलिए भगवान महावीर ने ऐसे व्यक्तियों को चेतावनी देते हुए अनुभव के स्वर में कहा-“हे पुरुष ! जिन्हें तुम अपना मानकर उनसे त्राण और शरण की अपेक्षा रखते हो, वे अपने माने हुए जन, तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं और न तुम भी उन्हें त्राण और शरण देने में समर्थ हो।"२ वास्तव में सचाई यह है जो 'बारस अणुवेक्खा' में स्पष्ट की गई है कि “जन्म, जरा, मृत्यु, रोग और भय आदि से आत्मा ही अपनी रक्षा कर सकता है, इसलिए कि (संवर-निर्जरारूप या रत्नत्रयरूप धर्म से युक्त) जो आत्मा कर्मों के बन्ध, उदय और सत्ता से पृथक् होती है, वह आत्मा ही इस संसार में शरण है।"३ आशय यह है कि आत्मा ही अपना रक्षक और शरणदाता इसलिए है कि वह स्वयं ही कर्मों का निरोध और क्षय, क्षयोपशम करके जन्म-मरणादि के दुःखों से स्वयं को बचा सकता है। अशरणानुप्रेक्षा से संवर और निर्जरा का लाभ
इसलिए दूसरों से त्राण और शरण की अपेक्षा बिलकुल न रखकर, अपने (आत्मा के) भीतर ही त्राण और शरण खोजना हितावह है। वस्तुतः त्राण या शरण अपने द्वारा सम्यग्ज्ञान-दर्शन-चारित्ररूप या संवर-निर्जरारूप धर्माचरण के पुरुषार्थ में ही निहित है, अन्यत्र नहीं। इस अशरणानप्रेक्षा से भावित मनुष्य का आत्म-धर्म = स्व-धर्म में पुरुषार्थ प्रबल हो जाता है, उसके जीवन में अनेक बातों में परतंत्रता, परमुखापेक्षिता, पराश्रितता और पर-पदार्थासक्ति छूट जाती है; दूसरे के द्वारा प्रत्युपकार न करने पर, समय पर सहायता न देने पर या विश्वासघात अथवा कृतघ्नता का व्यवहार होने पर उसके मन में क्रोध, क्षोभ, अशान्ति,
१. (क) 'अमूर्त चिन्तन' से भावांश ग्रहण, पृ. २६
(ख) शान्तसुधारस' (सं. मुनि राजेन्द्रकुमार) से भाव ग्रहण, पृ. ८ २. नालं ते तव ताणाए वा सरणाए वा। तुम पि तेसिं नालं ताणाए वा सरणाए वा।।
-आचारांगसूत्र, श्रु. १, अ. २, उ. १;४, सू. १८५, १९४, २५४ ३. जाइ-जरा-मरण-रोग-भयदो रक्खेदि अप्पणो अप्पा। जम्हा आदा सरणं बंधोदय सत्त कम्म वदिरित्तो।
-बारस अणुवेक्खा ११