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ॐ २०८ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
अशरणानुप्रेक्षा के चिन्तन से आध्यात्मिक लाभ
इस प्रकार अशरणानुप्रेक्षा के चिन्तन से मनुष्य विपत्ति आने पर दूसरों की शरण नहीं ताकता, न ही दूसरों से सहायता, सुरक्षा की अपेक्षा रखता है, दूसरों से त्राण, शरण और सहायता न मिलने पर भी उसे दुःख नहीं होता। 'सर्वार्थसिद्धि' के अनुसार-“मैं (बाह्य सजीव-निर्जीव पदार्थों की शरण से निरपेक्ष) सदैव अशरण हूँ, इस प्रकार की अशरणता का विचार करने से पर-पदार्थों से विरक्ति हो जाती है, संसार के कारणभूत पदार्थों पर ममता नहीं रहती तथा वह वीतरागप्ररूपित धर्ममार्ग में ही प्रयत्नशील होता है। “आत्मा को ही उत्तम क्षमादि भावों से युक्त करके उसी की शरण ग्रहण करता है।" इस प्रकार कषायों के मन्द करने से, विपदाओं को समभाव से सहन करने से निर्जरा का लाभ प्राप्त कर लेता है। पूर्वोक्त चतुष्टयी (अरहन्त, सिद्ध, साधु और धर्म) की शरण में जाने वाला व्यक्ति भविष्य में समस्त दुःखों से मुक्त हो जाता है तथा वर्तमान में वह अपनी (आत्मिक) अर्हताओं का विकास कर लेता है, परमार्थ का अनुचिन्तन करके स्व-रूप में स्थित हो पाता है, पर-पदार्थों और विभावों से निर्लिप्तता और जागरूकता का पक्का अभ्यास कर लेता है तथा आत्म-स्वभावरूप धर्म को जीवन में आचरित कर लेता है। यह है अशरणानुप्रेक्षा की उपलब्धि।
(३) संसारानुप्रेक्षा : स्वरूप और उपाय संसार क्या है, कैसा है, क्यों है ?
अध्यात्म तत्त्ववेत्ताओं ने इस संसार को स्थूलदृष्टि से न देखकर अत्यन्त सूक्ष्म दृष्टि से देखा और जिस प्रकार स्थूलदृष्टि-प्रधान व्यक्ति संसार को सुखमय, पिछले पृष्ठ का शेष
लम्बनं कृत्वा भावनां करोति। यादृशं शरणभूतमात्मानं भावयति तादृशमेव सर्वकाल-शरणभूतं शरणगत-वज्रपंजरसदृशं निज-शुद्धात्मानं प्राप्नोति। इत्यशरणानुप्रेक्षा।
-द्र. सं. टीका ३५/१०२ (ग) अस्ति चेत् सुचरितो व्यसन-महार्णवेतरणोपायो भवति। मृत्युना नीयमानस
सहस्रनयनादयोऽपि न शरणम्। तस्माद्भव-व्यसन-संकटे धर्म एव शरणं सुहृदर्थोऽप्यनपायी, नान्यत् किंचिच्छरणमितिभावना अशरणानुप्रेक्षा।
-सर्वार्थसिद्धि ९/७/४११ १. (क) एवंह्यध्यवसतो नित्यमशरणोऽस्मि, इतिभृशमुद्विग्नस्य (विरक्तस्य) सांसारिकेषु भावे ममत्व-विगमो भवति। भगवदर्हत्सर्वज्ञप्रणीत एव (धर्म.) मार्गे प्रयत्लो भवति ।
. -वही ९/७/४१४ (ख) अप्पाणं पि य सरणं खमादि-भावेहिं परिणदो होदि। -कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३१ (ग) 'शान्तसुधारस, संकेतिका नं. २' से भाव ग्रहण, पृ. ९