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ॐ कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ * २११ ॐ
पाँच प्रकार का संसार : संसारानुप्रेक्षा के लिए संसारानुप्रेक्षा करने वाला व्यक्ति पाँच प्रकार से संसार के स्वरूप का तटस्थ रहकर बार-बार प्रेक्षण करता है। 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के अनुसार-संसार का संसरण (भ्रमण) पाँच प्रकार से होता है-(१) द्रव्य से, (२) क्षेत्र से, (३) काल से, (४) भव से, और (५) भाव से। द्रव्य से संसार है-शब्द, रूप, रस, गन्ध और स्पर्शरूप पौद्गलिक द्रव्यों के (अनुकूल पर आसक्तिरूप) ग्रहण और (प्रतिकूल पर अरुचि या घृणारूप) त्याग के रूप में संसरण = परिभ्रमण। अथवा ज्ञानावरणीयादि कर्मवश समय-समय में अमुक कर्म-पुद्गलों का ग्रहण करना और अमुक का छोड़ना। क्षेत्र से संसार है-(मनोज्ञ क्षेत्र के) ग्रहण और (अमनोज्ञ क्षेत्र के) त्यागरूप संसरण अथवा अमुक आकाश प्रदेश के स्पर्शनरूप ग्रहण-अग्रहणरूप परिभ्रमण। लोकाकाश प्रदेशों में ऐसा कोई प्रदेश बाक़ी नहीं रहता, जहाँ संसार के सभी जीव अनेक बार या अनन्त-बार जन्मे या मरे न हों। यह भी क्षेत्ररूप संसार है। काल से संसार है-अमुक काल में अच्छी और अमुक बुरी परिस्थिति, चित्रवृत्ति, संज्ञा, लेश्या आदि में संसरण करना अथवा संसार की प्रत्येक वस्तु तीनों काल से सम्बद्ध-उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यरूप है अथवा प्रत्येक स्थिति में उत्पन्न-विनष्टरूप क्रम का नाम संसार है, जो परिभ्रमणशील है अथवा उत्सर्पिणी और अपसर्पिणी काल के प्रथम समय से लेकर अन्त तक संसारी जीव कर्मानुसार जन्मता-मरता है। यह काल परिवर्तनरूप संसार है। वर्तमान भौतिकविज्ञानवेत्ता भी मानते हैं कि जगत् का कोई भी पदार्थ सर्वथा नष्ट नहीं होता। केवल उसमें परिवर्तन होता रहता है। प्रत्येक काल में जड़ और चेतनरूप इस संसार में परिवर्तन होता रहता है। संसारी आत्मा कर्मवश विजातीय (अजीव) तत्त्व से सर्वथा मुक्त नहीं हो पाता। वह चतुर्गतिक संसार में कर्मवश भ्रमण करता रहता है। भव से संसार का एक परिभ्रमणरूप लक्षण यही है। दूसरा रूप है-नरक, तिर्यंच, मनुष्य और देव। इन भवों में कर्मानुसार भविष्य में अमुक भव का ग्रहण और अमुक (पिछले) भव का त्यागरूप संसरण = परिभ्रमण । जीवों का भव भी बदलता रहता है, कभी वे मनुष्य होते हैं, कभी पश, कभी देव और कभी नारक । जीव भी बदलते रहते हैं, कभी जन्म लेते हैं, कभी मरते हैं। कहीं पुत्र का जन्म होता है; कहीं पुत्र का या पिता का मरण होता है। इस.प्रकार के जन्म-मरण का या परिवर्तन का नाम भवसंसार है। इसी प्रकार संसारी जीव नरकादि चार गतियों की जघन्य स्थिति से लेकर उत्कृष्ट स्थिति तक सर्व स्थितियों में अवेयक देवलोक पर्यन्त जन्मता-मरता है। यह भी भवसंसार है। भावसंसार है-कषायों तथा राग-द्वेषादि भावों के मन्द-मध्यमउत्कृष्टतारूप परिवर्तन-परिभ्रमण होना। अथवा औदायिक भावों के कारण संसार में स्थित संज्ञी जीव के अनेक प्रकार के कर्मों के स्थितिबन्ध और अनुभागबन्ध के