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३ २१० कर्मविज्ञान : भाग ६
अभिनेता होते हैं। अभिनयों और अभिनेताओं में समानता नहीं होती। सभी अपने-अपने कर्मसूत्रों से प्रेरित होकर अपना-अपना अभिनय प्रस्तुत करते हैं और आयुष्य क्षय होते ही दूसरी गति, योनि, शरीर आदि को प्राप्त करते हैं, वहाँ भी वे अपने-अपने कर्मानुसार अभिनय अदा करते हैं। इन सबको संचालित करने वाला बहुत ही विचित्र और विलक्षण सूत्रधार है - कर्म । वही संसारवर्ती सभी प्राणियों को अपने-अपने कर्मानुसार संसार के इस रंगमंच पर कठपुतली की तरह नचाता है। उसी के वशीभूत होकर मनुष्य कभी शुभ कर्मवश शुभ गति, मति, क्षमता, स्थिति आदि पाकर गौरवग्रन्थि से ग्रस्त एवं मदोन्मत्त हो जाता है और कभी. अशुभ कर्मवश अशुभ गति, शरीर, मति आदि पाकर हीनभावना से ग्रस्त हो जाता है । इस प्रकार मोहमद्य के नशे में मनुष्य एक ही जन्म में अनेक प्रकार की स्थितियों का अनुभव करता है, अनेक प्रकार के दुःखों में पड़ा हुआ भी मोहमूढ़ होकर सुखानुभव करता है।' रौद्र, भयानक, वीभत्स, शान्त आदि अनेक रसों में डूबता - उतराता रहता है। कभी स्वार्थ और अहंकार की टकराहट होती है तो कभी धन और सत्ता की लालसा होती है, कभी भय तो कभी प्रलोभन, कभी पीड़ा तो कभी वैषयिक सुखमग्नता, इस प्रकार की आँखमिचौनी का खेल संसार में होता रहता है। इस संसाररूपी नाटक का अभिनेता और अभिनय करने वाला तथा दर्शक स्वयं जीव ही है।
संसारानुप्रेक्षा का साधक अनुप्रेक्षा किस प्रकार करता है ?
इतनी विविधताओं, विचित्रताओं एवं उपाधियों से भरे इस आश्चर्यजनक संसार को अनुप्रेक्षक साधक परिवर्तनशील मानकर इस संसार में न तो मूढ़ व आसक्त होता है, न ही इससे घृणा द्वेष करता है । इस प्रकार संसारानुप्रेक्षा करने वाले व्यक्ति के मन में मदान्धता ( अहंकारिता ) या हीनता की व्याधि नहीं पैदा होती । संसारानुप्रेक्षक यही सोचता है कि इस संसार में किसी भी व्यक्ति की सदा एक-सी स्थिति नहीं रहती । अनेक जन्मों की बात क्या, एक जन्म में भी व्यक्ति के सामने अनेक परिस्थितियाँ आती हैं, परन्तु उनमें वह सुख या दुःख का अनुभव (भोग) नहीं करता, वह उन्हें सिर्फ जानता है, देखता है और उनमें समभाव रखता है। मोहवश वह आत्म-भाव की स्थिति से विचलित नहीं होता । २
१. (क) 'शान्तसुधारस, संकेतिका नं. ३' से भाव ग्रहण, पृ. १३ (ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. ३०
२. (क) 'शान्तसुधारस, संकेतिका नं. ३' से भाव ग्रहण, पृ. १३ (ख) 'अमूर्त चिन्तन' से भाव ग्रहण, पृ. ३०-३१