________________
* कर्ममुक्ति में सहायिका : अनुप्रेक्षाएँ २०३
प्रतिक्रिया, अधैर्य, द्वेष या वैर - विरोध, जोकि अशुभ कर्मास्रव व कर्मबन्ध के कारण हैं, उत्पन्न नहीं होते, इन आम्रवों का निरोध हो जाने से सहज ही संवर का और स्व-कृत कर्मोदयवश दुःख, कष्ट आदि आने पर समभाव एवं धैर्य से सहन करने के करण सकाम निर्जरा का भी लाभ प्राप्त हो जाता है। अशरणानुप्रेक्षा से इतना बड़ा आध्यात्मिक लाभ कब और कैसे प्राप्त हो सकता है ?
आत्मा के गुण ही जीव के लिए त्रैकालिक शरण हैं
इस विषय में ' कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में कहा गया है - " हे भव्य ! अपने (आत्मा के) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र ही शरण हैं । ( वास्तविक या अन्तिम त्राण या शरण अपना ज्ञान, दर्शन, आचरण एवं व्यवहार ही होता है ।) अतः परम श्रद्धा के साथ उन्हीं का सेवन आराधन कर। संसार में (कर्मवश) परिभ्रमण करते हुए जीवों के लिए इनके ( रत्नत्रयरूप धर्म के ) सिवाय अन्य कोई भी शरण नहीं है।” इसीलिए ‘मोक्षपाहुड' में कहा गया है - " मेरी आत्मा ही शरण है। ""
इसी तथ्य के समर्थन में 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' में कहा गया है - " जो (स्वकीय) आत्मा क्षमा आदि दशविध धर्म से परिणत होती है, वही आत्मा शरणरूप बनती है । इसके विपरीत जो आत्मा (दूसरों से शरण की अपेक्षा रखने से, न मिलने पर ) तीव्र कषायाविष्ट हो जाती है, वह आत्मा ( शरणरूप नहीं) स्वयं का ही हनन करती है ।" इसीलिए भगवान महावीर ने कहा - अशरण को शरण और शरण को अशरण मानने वाला व्यक्ति भटक जाता है। अतः स्वयं की शरण में आना ही अशरणानुप्रेक्षा का मुख्य उद्देश्य है । २
=
जन्म-जरा-मृत्यु-व्याधि आदि दुःखों से कौन बचा सकता है ?
इस जगत् में कोई सबसे बड़ा भय है तो वह है - मृत्यु का भय । इसी प्रकार के अन्य दुःख भी हैं - बुढ़ापा, जन्म, व्याधि, विपत्ति आदि । इस सब संकटों से रक्षा के लिए मनुष्य अपने शरीर को समर्थ और बलवान बनाता है। माता, पिता, पुत्र,
१. (क) दंसण - णाण-चरितं सरणं सेवेहि परमसद्धाए । अण्णं किं ण सरणं, संसारे संसरंताणं ।।
(ख) आदा हु मे सरणं।
२. (क) अप्पाणं पि य सरणं खमादिभावेहिं परिणदं होदि ।
तिव्वकसायाविट्ठी अप्पाणं हणदि अप्पेण ।।
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३०
- मोक्खपाहुड १०५
- कार्तिकेयानुप्रेक्षा ३१
- आचारांग, श्रु. १, अ. २
(ख) असरणं सरणं मन्नमाणे बाले लुंपइ ।
(ग) एत्थ वि बाले परिपच्चमाणे रमति पावेहिं कम्मेहिं, असरणे सरणंति मन्नमाणे ।
- वही, श्रु. १, अ. ५, उ. १, सू. ४९६