________________
ॐ संवर और निर्जरा की जननी : भावनाएँ और अनुप्रेक्षाएँ * १९३ *
संत तुकाराम की 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध संत तुकाराम करुणाशील हृदय के लिए विख्यात हैं। एक बार वे विठोबा की यात्रा पर जा रहे थे। रास्ते में कबूतरों का एक बड़ा दल जुआर चुग रहा था। तुकाराम ज्यों ही वहाँ से गुजरे कि सभी कबूतर उड़ गए। यह दृश्य देखकर संत तुकाराम वहीं रुक गए। सोचने लेगे-ये कबूतर मेरे से भयभीत होकर ही तो उड़ गए। सचमुच मैं अभी तक संत कहलाने लायक नहीं। संत के पास तो छोटे-बड़े, बालक-वृद्ध, स्त्री-पुरुष सभी निःसंकोच आ सकते हैं। पशु-पक्षीगण भी संत को देखकर निर्भयता से विचरण कर सकते हैं। इतना ही नहीं, हिंसक पशु भी अपना हिंसक-स्वभाव भूलकर सिंह और गाय, साँप और नेवला, कुत्ता और बिल्ली भी संत के सान्निध्य में निर्भय होकर बैठ सकते हैं। परन्तु ये कबूतर मुझे देखकर उड़ गए, इसका कारण है-मेरे में अभी अशुद्धि है, पाशविकता है। अतः उन्होंने विठोबा की यात्रा में आगे बढ़ना स्थगित कर दिया और ऐसा भावनायुक्त संकल्प लेकर वहीं बैठ गए कि “जब तक ये कबूतर निर्भय होकर मेरे कन्धे पर आकर नहीं बैठेंगे, तब तक मैं यहीं रुकूँगा। भोजन भी नहीं करूँगा।" संत तुकाराम वहीं रुक गये और अपने हृदय में 'आत्मवत् सर्वभूतेषु' की भावना की रट लगाते रहे। उनके इस निरन्तर आत्मौपम्य भावना के अभ्यास से उनके ज्ञात मन में जो भेदभाव की अशुद्धि थी, वह दूर हो गई। उनके हृदय में समस्त प्राणियों के प्रति मैत्री, प्रेम
और करुणा का झरना बहने लगा। तीन दिन और रात तक इस उच्च भावना से उनका अवचेतन मन इतना भावित हो गया कि कबूतरों का दल बिलकुल निर्भय होकर दाना चुगने लगा और संत तुकाराम के कंधे पर निश्चिंत होकर वे बैठने लगे। संत की इस अनुप्रेक्षात्मक भावना की साधना सफल हुई। वे अब विठोबा की यात्रा के लिए आगे बढ़े। यह था अनुप्रेक्षात्मक भावना का चमत्कार !
भावना, भावितात्मा और भावनायोग की साधना तप और संयम की साधना को हृदयंगम करने, आत्मसात् करने और उनमें तन्मयतापूर्वक रमण करने हेतु आगमों में यत्र-तत्र ‘संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरई' शुद्ध संयम और तप की भावना से आत्मा को भावित करते हुए (वह साधक) विहरण करता है, ऐसे भावनायोग के प्रयोग का उल्लेख आता है। भावना से मन आत्मा सें, सत्य से अथवा अपने ध्येय (कर्ममुक्तिरूप मोक्ष) से जुड़ जाता है। इसलिए यह योग है जिसके फलस्वरूप साधक संवर (कर्मनिरोधरूप)
और निर्जरा (कर्म के आंशिक क्षयरूप) को सहज ही अर्जित कर लेता है। भगवान महावीर ने कहा-“जिसकी आत्मा भावनायोग से विशुद्ध हो गई है, उसके लिए
9. 'जैन प्रकाश, २0 अगस्त १९८७' से भाव ग्रहण