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ॐ १२८ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ ®
कैसे लेनी चाहिए? इन्हें लेने और इनका उपभोग (सेवन) करते समय किन-किन बातों का विवेक करना चाहिए? इत्यादि विचार करने से प्रमाद (असावधानी) से अनावश्यक एवं निरर्थक लगने वाले दोषों से तथा अमर्यादित प्रमाण में सेवन से होने वाले कर्मास्रव का निरोध होने से एषणासमिति द्वारा संवर का उपार्जन हो जाता है। इसके अतिरिक्त आहार उपधि आदि का त्याग-प्रत्याख्यान करने अथवा न मिलने पर भी समभाव रखने से असंक्लिष्ट एवं निराकांक्ष हो जाता है, कर्मनिर्जरा कर सकता है। साधुवर्ग को आहार लेने और छोड़ने का विधान
‘उत्तराध्ययनसूत्र' के २६वें अध्ययन में कहा गया है कि साधुवर्ग को छह कारणों से परिमित और एषणीय आहार करना चाहिए और छह. कारणों से
आहार का त्याग करना चाहिए। वहाँ बताया गया है कि धृतियान् निर्ग्रन्थ-निर्ग्रन्थी वर्ग छह कारणों में से किसी एक कारण के उपस्थित होने पर आहार-पानी की गवेषणा करे, यथा-(१) वेदना (क्षुधा) की शान्ति के लिए, (२) वैयावृत्य (सेवा) के लिए, (३) ईर्या (समिति) के पालन के लिए, (४) संयम के लिए, (५) प्राण-धारण करने के लिए, और (६) धर्म-चिन्तन (धर्मपालन) करने के लिए।
इसके विपरीत संयम (ज्ञानादिरत्नत्रय) का अतिक्रमण न हो, इसके लिए निम्नोक्त छह कारणों से आहार-पानी की गवेषणा (ग्रहण और परिभोग की एषणा) न करे। यथा-आतंक (रोगादि) होने पर, उपसर्ग आने पर, तितिक्षा के लिए, ब्रह्मचर्य-गुप्तियों की रक्षा के लिए, प्राणियों की दया के लिए और कायोत्सर्ग या संलेखना-संथारा द्वारा शरीर के व्युत्सर्ग (विच्छेद) के लिए। ____ मूल पाठ में अंकित ‘भत्त-पाणं गवेसए' शब्द का अर्थ यों तो भक्त-पान की गवेषणा करे, होता है, परन्तु उसका फलितार्थ है-आहार-पानी करे। 'मूलाचार' में भी इसी आशय की एक गाथा है, उसमें भी छह कारणों से आहार लेने का विधान है। वहाँ ‘इरियट्ठाए' के बदले 'किरियाठाणे' (षड्आवश्यक आदि क्रियाओं का पालन के लिए) पाठ है।
१. देखें-उत्तराध्ययनसूत्र के २९वें अध्ययन में आहार प्रत्याख्यान और उपधि प्रत्याख्यान का
बोल ३५. ३४ २. (क) तइयाए पोरिसीए भत्तं पाणं गवेसए।
छण्हं अन्नतराए कारणंमि समुट्टए॥३२॥ वैयण वेयावच्चे, इरियट्टाए य संजमद्वार। तह पाणवत्तियाए, छटुं पुण धम्मचिंताए॥३३॥