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ॐ १६० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
आर्जव धर्म की उपलब्धि के लिये क्या होना चाहिए, क्या नहीं ? ____ आर्जव धर्म की उपलब्धि के लिये व्यक्ति की आन्तर-बाह्य क्रिया में अन्तर नहीं होना चाहिए, अन्तरंग में कुछ और बाहर में कुछ अन्य ढंग से बोलना या करना वक्रता है, अनेकविध लोक-दिखावी प्रवृत्तियों के द्वारा अपने आप को क्षमतायोग्यता विरुद्ध दूसरे से अधिक दिखाने का प्रयत्न करना दम्भाचरण है, ऐसा न होना ही आर्जव है। जिसे दूसरों को प्रभावित करने की दृष्टि रहती है, वह बड़े से बड़ा दीर्घ तप करता है, सभी धार्मिक क्रियाएँ भी करता है, सम्भवतः सत्य साधक की अपेक्षा भी अधिक करता है, परन्तु ये सब लोक-दिखावा मात्र होने के कारण इनका कुछ भी मूल्य आध्यात्मिक दृष्टि से नहीं है। लौकिक और लोकोत्तर दोनों क्षेत्रों में से दम्भ दिखावा, मायामृषावाद आदि निकल जाएँ, सरलता और सम्यग्दृष्टिपूर्वक तीनों योगों की एकरूपतानुरूप सत्प्रवृत्ति की जाए तो आर्जव धर्म आ सकता है और उससे संवर एवं निर्जरा का अनायास लाभ प्राप्त हो सकता है।
(४) उत्तम शौच : धर्म
तन-मन की पवित्रता का साधक शौच धर्म का दूसरा नाम मिलता है-मुक्ति यानी निर्लोभता। मुक्ति का अर्थ किया गया है-लोभ पर विजय प्राप्त करना; पौद्गलित वस्तुओं की प्राप्ति की लालसा न रखना। शौच का अर्थ होता है-पवित्रता। सम्यग्दर्शन के सहित होने वाली उत्कृष्ट पवित्रता शौच धर्म है। किन्तु इसका. फलितार्थ किया गया हैलोभकषाय से उत्कृष्ट रूप से उपरत होना-निवृत्त होना शौच = पवित्रता है। 'कार्तिकेयानुप्रेक्षा' के अनुसार-“जो साधकः समभाव और सन्तोषरूपी जल से तृष्णा (ममता-मूर्छा) और लोभरूपी मल के समूह को धोता है तथा भोजन (भोज्य पदार्थों के सेवन) की गृद्धि (आसक्ति) से रहित है, उसके निर्मल शौच धर्म होता है।" 'भगवती आराधना' के अनुसार-“धनादि वस्तुओं में ये मेरे हैं, ऐसी अभिलाषा बुद्धि ही सर्व संकटों में मनुष्य को गिराती है। इस ममत्व को हृदय से दूर करना ही लाघव अर्थात् शौच धर्म है।' 'बारस अणुवेक्खा' में बताया गया है"शौच धर्म उस परम मुनि के होता है, जो इच्छाओं का निरोध करके वैराग्यभावना से युक्त होकर आचरण करता है।२
१. (क) 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ६३०
(ख) 'शान्तिपथदर्शन' से भाव ग्रहण, पृ. ४१८ २. (क) 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ६३१ (ख) प्रकर्षप्राप्ताल्लोभानिवृत्तिः शौचम्।
--सर्वार्थसिद्धि ९/६/४१२