________________
* संवर और निर्जरा की जननी : भावनाएँ और अनुप्रेक्षाएँ
१८१ ®
अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। शरीर आदि के स्वभाव का पुनः-पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है।' उपयोगिता के आधार पर भिन्न-भिन्न नामों का चुनाव हुआ है। _ 'अमूर्त चिन्तन' में अनुप्रेक्षा का एक और विलक्षण अर्थ दिया गया है"(प्रेक्षा) ध्यान में जो कुछ हमने देखा, देखने के बाद उसकी प्रेक्षा करना-उसके परिणामों पर विचार करना, यह है अनुप्रेक्षा। जैसे-(अनित्यानुप्रेक्षा के सन्दर्भ में) हमने देखा कि शरीर के अमुक भाग में स्पन्दन हो रहा है। परमाणु आ रहे हैं, जा रहे हैं, परमाणुओं का चय-उपचय हो रहा है, परमाणु घट रहे हैं, बढ़ रहे हैं। यह सारा देखा। अब सोचना है-उसका परिणाम क्या होगा? हम अनित्यानुप्रेक्षा करेंगे कि जहाँ परमाणुओं का स्पन्दन है, आना-जाना है, वह नित्य नहीं हो सकता, अनित्य होगा। इस प्रकार हम समझ लेंगे कि शरीर अनित्य है, अनित्य धर्मा है
इस अनित्यता का अनुभव करना, विचार करना, चिन्तना-यह है (हुई) अनित्यानुप्रेक्षा।" इस प्रकार अशरण, संसार, एकत्व, अन्यत्व आदि के विषय में भी आत्मानुलक्षी बार-बार चिन्तन-मनन, अनुभव करने से भी अन्य अनुप्रेक्षाएँ हो सकती हैं। ____ 'कार्तिकेयानप्रेक्षा' में इसी तथ्य को स्पष्ट किया गया है-अनित्य, अशरण, एकत्व, अन्यत्व आदि स्वरूपों का अनुचिन्तन अर्थात् बार-बार चिन्तन करना, स्मरण करना और देखना अनुप्रेक्षा है।३ अनुप्रेक्षा को स्वाध्याय का चतुर्थ अंग माना गया है। __ अनुप्रेक्षा का तात्पर्यार्थ समझाते हुए ‘राजवार्तिक' में कहा गया है-“जैसे तप्त लोहपिण्ड के भीतर अग्नि प्रविष्ट होकर उसमें समा जाती है, उसी प्रकार पढ़े, सुने या ग्रहण किये हुए पदार्थ को हृदय और बुद्धि में समा देना, आत्मसात् कर लेना अथवा मन से अभ्यास करके उस विषय को मन में रमा देना, इसका नाम हैअनुप्रेक्षा।"४ आशय यह है कि जैसे दूध में शक्कर मिल जाती है, रम जाती है, उसी प्रकार पढ़ा, सुना या ग्रहण किया हुआ ज्ञान हृदय में रम जाना ही वास्तव में अनुप्रेक्षा है। 'धवला' में अनुप्रेक्षा का वास्तविक प्रयोजन बताते हुए लक्षण किया १. (क) सुदत्थस्स सुदाणुसारेण चिंतणमणुपेहणं णाम।
-धवला १४/९/५ (ख) अधिगतार्थस्य मनसाऽभ्यासोऽनुप्रेक्षा।
-सर्वार्थसिद्धि ९/२५/४४३ ... (ग) शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा।
-वही ९/२/४०९ २. देखें-'अमूर्त चिन्तन' (युवाचार्य महाप्रज्ञ) में अनुप्रेक्षा का विश्लेषण, पृ. २ ३.. (क) अनु पुनः-पुनः प्रेक्षणं = चिन्तनं, स्मरणं अनित्यादि-स्वरूपाणामित्यनुप्रेक्षा।
___-कार्तिलयानुप्रेक्षा, टीका १ ___ (ख) शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा।
-तत्त्वार्थसूत्र भाष्य ९/२/४0 ४. अधिगत-पदार्थ-प्रक्रियस्य तप्ताऽयस्-पिण्डवदर्पितमनसाऽभ्यासोऽनुप्रेक्षा। -राजवा. ९/२५