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* १८६ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
अशुभ आयु को शुभ आयु में परिवर्तित नहीं किया जा सकता, किन्तु अनुप्रेक्षा की निर्मल तीव्रभाव धारा के कारण आयुष्य कर्म की प्रकृति अशुभ तत्त्व में कमी अवश्य हो सकती है। इसी प्रकार निकाचित-कर्मबन्ध की स्थिति में कोई परिवर्तन नहीं होता, उसे तो जैसा बाँधा है, वैसा ही भोगना पड़ता है, किन्तु भोगते समय समभाव, कषाय-मन्दता आदि रहे तो शीघ्र उस कर्म का क्षय हो जाता है। . . सभी भावना से रासायनिक परिवर्तन __वर्तमान मनोविज्ञान (साइकोलोजी) एवं शरीरविज्ञान (फिजियोलोजी) भी अनुप्रेक्षा पद्धति से रासायनिक परिवर्तन के पक्ष में हैं। शरीरविज्ञान के अनुसार मानव-शरीर में अनेक ग्रन्थियाँ हैं, जो अन्तःस्रावी हैं। इन ग्रन्थियों से अधिक रसस्राव होने से काम, क्रोध, अहंकार, भय आदि आवेग उत्तेजित हो जाते हैं। इसके विपरीत इन ग्रन्थियों का रस-स्राव रोक देने से पूर्वोक्त आवेगों की उत्तेजनात्मक स्थिति कम हो जाती है। शरीर-वैज्ञानिकों ने प्रयोग किया है कि जो उग्र क्रोध में तमतमा रहा है, उसकी क्रोधग्रन्थि को अवरुद्ध कर दिया जाये और स्नेहग्रन्थि को सक्रिय कर दिया जाये तो वह दूसरे ही क्षण मुस्कराने लगता है।
भारत के अध्यात्म वैज्ञानिकों ने इसके स्थान पर अनुप्रेक्षा प्रयोग की पद्धति बताई है, जिसके द्वारा अनित्यत्व, अशरणत्व, एकत्व, अन्यत्व आदि भावों का लगातार चिन्तन करने से तथा मन को बार-बार उन भावों में केन्द्रित करने से शरीरगत ग्रन्थियों का स्राव स्वतः ही कम होने लगता है। अतः कामग्रन्थि, क्रोधग्रन्थि आदि के अन्तःस्राव रुक जाने से क्रोधादि कषायों का आवेग कम हो जाता है। कर्मबन्ध का मुख्य कारण तो कषाय ही है। कषायों की मन्दता होने से पुराने बन्धन या तो शिथिल हो जाते हैं या निर्जरा होने से टूटने लगते हैं।
मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि बार-बार अनुप्रेक्षाओं का चिन्तन करने से अवचेतन मन पर बहुत बड़ा प्रभाव पड़ता है। जिससे जैसी अनुप्रेक्षा या भावना की जाती है, वैसा घटित होने लगता है। कार्मणशरीर पर इसी प्रकार की रासायनिक प्रक्रिया बार-बार भावनात्मक अनुप्रेक्षा करने से होती है। अनुप्रेक्षा मानसिक चिन्तन-सापेक्ष होती है । ___ 'दशवकालिक चूर्णि' में कहा गया है कि जिसमें काया से नहीं, मन से ही बार-बार चिन्तन करने से परिवर्तन हो जाता है, उसी का नाम अनुप्रेक्षा है। वाक्शक्ति से मनःशक्ति विशेष प्रबल होती है। मानसिक स्मरण में अधिक तीव्र शक्ति
१. आगममुक्ता' से भाव ग्रहण, पृ. १४७ २. वही, पृ. १४५