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* दशविध उत्तम धर्म १६९
उसका स्थान शरीर और वाणी में नहीं है, अपितु आत्मा में है। वचन से तो उसकी अभिव्यक्ति होती है। सम्पूर्ण आत्म-धर्मों के धनी सिद्धों में न वाणी है, न शरीर है, नमन है। किन्तु क्षमादि दस धर्म, जिनमें सत्य धर्म भी है, सिद्धों में विद्यमान है, फिर उनमें सत्य धर्म के उपर्युक्त लक्षण कैसे घटित होंगे ? परन्तु संसारी जनों के लिए व्यावहारिक दृष्टि से सत्य धर्म वाणी, मन और शरीर के द्वारा ही अभिव्यक्त हो सकता है, इसलिए सत्य धर्म इस दृष्टि से धर्म कहा गया है। अतः सत्य धर्म के साथ 'उत्तम' विशेषण मिथ्यात्व के अभाव और सम्यग्दर्शन का अस्तित्व होने का सूचक है। मिथ्यात्व के अभाव के बिना तो सत्य धर्म की प्राप्ति ही संभव नहीं है। निश्चयदृष्टि से आत्म-स्वरूप का सत्य ज्ञान और सम्यग्दर्शन सहित वीतरागभाव में रमण होना सत्य धर्म है। क्योंकि उत्तम क्षमादि दस धर्म चारित्ररूप हैं। सत्य धर्म भी चारित्र गुण की पर्याय है, सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन क्रमशः ज्ञान और श्रद्धानगुण की पर्याय हैं। अतः जो जैसा है, उसे वैसा ही मानना, जानना और उसी रूप में राग-द्वेषरहित होकर वीतरागभाव में परिणत होना सत्य धर्म है। ऐसा आत्म-सत्य सत्य धर्म की रुचि वाले को प्राप्त होता ही है। यदि वस्तु सत्य की जानकारी न हो तो बोलने के बजाय मौन रहना ही अधिक श्रेयस्कर है । '
(६) उत्तम संयम : धर्म-स्वरूप, प्रकार और उपाय
सम्यक् यम करना, नियंत्रण करना संयम है। संयम के साथ 'उत्तम' शब्द लगा है, वह सम्यग्दर्शन के अस्तित्व का सूचक है। क्योंकि सम्यग्दर्शन के बिना संयम की उत्पत्ति, स्थिति, वृद्धि या फल प्राप्ति सम्भव नहीं है। 'धवला' में इस तथ्य को स्पष्ट किया गया है - "संयम वही है, जो सम्यक्त्व का अविनाभावी है। मिथ्यादृष्टि जीवों में जो संयम देखा जाता है, सम्यग्दर्शनरहित आत्माश्रयहीन संयम है, अतः उत्तम संयम नहीं है। सर्वदुःखों से मुक्ति का एकमात्र उपाय उत्तम संयम ही है, जो सम्यग्दर्शनसहित है। तीर्थंकरों को भी मोक्ष प्राप्ति के लिए संयम ग्रहण करना होता है। इसलिए संयम-साधक जीवन में पद पद पर अनिवार्य है और उसकी रत्नवत् सुरक्षा करना भी आवश्यक है; क्योंकि पाँच इन्द्रियों के विषय और कषायरूपी चोर उसे सदैव लूटने के लिए तत्पर रहते हैं । उस उत्तम संयमरत्न को पाने के लिए देवगण भी तरसते हैं, वे मानव को भाग्यशाली समझते हैं कि वही संयम ग्रहण कर सकता है, न हम संयम ग्रहण कर सकते हैं और न ही नारक और तिर्यंच ही । परन्तु केवल घरबार छोड़कर सिर मुँड़ा लेने या साधुवेष पहन लेने तथा कुछ
१. (क) 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण, पृ. ६३३ (ख) 'धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ७५