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ॐ दशविध उत्तम धर्म ® १७५ ®
त्याग में आत्म-हित का। त्याग ऐसा धर्म है, जिसे धारण करके आत्मा परम आनन्द को प्राप्त करती है।
त्याग धर्म के अन्तर्गत विविध प्रत्याख्यान दानियों की अपेक्षा त्यागियों का अधिक आदर जगत् में होता है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' में इसी त्याग धर्म के सम्बन्ध में संभोग-प्रत्याख्यान, उपधिप्रत्याख्यान, आहार-प्रत्याख्यान, कषाय-प्रत्याख्यान, योग-प्रत्याख्यान, शरीरप्रत्याख्यान, सहाय-प्रत्याख्यान, भक्त-प्रत्याख्यान एवं सद्भाव-प्रत्याख्यान आदि के सम्बन्ध में जिज्ञासाओं का समाधान किया गया है और इन प्रत्याख्यानों का आध्यात्मिक लाभ भी बताया गया है।
(९) उत्तम आकिंचन्य : धर्म-एक अनुचिन्तन
आकिंचन्य धर्म का अर्थ और तात्पर्य आभ्यन्तर और बाह्य परिग्रहरे का त्याग करके आत्म-भाव में रमण करना आकिंचन्य धर्म है। जैन-सिद्धान्त की दृष्टि से बाह्य परिग्रह का त्याग महत्त्वपूर्ण नहीं है, महत्त्वपूर्ण है आभ्यन्तर परिग्रह का त्याग। एक दरिद्री के पास बाह्य परिग्रह बहुत कम होगा, फिर भी उसे अकिंचन नहीं कह सकते, क्योंकि उसकी आसक्ति, ममता बाह्य परिग्रह से छूटती नहीं है, काम, क्रोध, लोभ आदि आभ्यन्तर परिग्रह भी उसका छूटा नहीं है। शरीर, कर्म तथा उपधि, ये मुख्य बाह्य परिग्रह हैं। इसलिए ‘कार्तिकेयानप्रेक्षा' में कहा है-बाह्य परिग्रह से रहित दरिद्री मनुष्य तो स्वभाव से ही होते हैं। किन्तु अन्तरंग परिग्रह को छोड़ने में कोई समर्थ नहीं होता।
'अष्टपाहुड' में बाह्य परिग्रह और आभ्यन्तर परिग्रह के त्याग समन्वय करते
१. (क) धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ११६
(ख) 'जैन आचार : सिद्धान्त और स्वरूप' से भाव ग्रहण (ग) परानुग्रहबुद्ध्या स्वस्यातिसर्जनं दानम्।
-सर्वार्थसिद्धि ६/१२ २. देखें-उत्तराध्ययनसूत्र, अ. २९, बोल ३३-४१ ३. आभ्यन्तर परिग्रह के १४ प्रकार-(१) मिथ्यात्व, (२) क्रोध, (३) मान, (४) माया,
(५) लोभ, (६) हास्य, (७) रति, (८) अरति, (९) शोक, (१०) भय, (११) जुगुप्सा. (१२) स्त्रीवेद, (१३) पुरुषवेद, (१४) नपुंसकवेद। बाह्य परिग्रह के १० प्रकार-(१) क्षेत्र (खेत), (२) मकान, (३) चाँदी, (४) सोना, (५) धन, (६) धान्य, (७) दासी, (८) दास, (९) वस्त्र, और (१0) बर्तन आदि सामग्री।