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* संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म - १६५ *
स्वभाव से पवित्र आत्मा को
आश्रय लेने पर ही शुचिता प्रगट होगी इस प्रकार के सभी लोभों का संवरण करने से शौच धर्म के द्वारा संवर होगा तथा वीतरागता में, ज्ञाता-द्रष्टाभाव में, आत्म-गुणों में रमणता से निर्जरा (कर्मक्षय) होगी। स्वभाव से तो सभी आत्माएँ पवित्र हैं, परन्तु जव 'पर' पर्यायों का आश्रय लिया जाता है, तो वह अपवित्र हो जाती हैं, अतः पर्याय को पवित्र रखने का एक मात्र उपाय है-परम पवित्र 'स्व' का, आत्म-स्वभाव का आश्रय लेना। 'स्व' के आश्रय से ही शुचिता प्रगट होती है। अतः 'पर' का आश्रय छोड़कर 'स्व' का आश्रय लेना ही निश्चयदृष्टि से शौच धर्म है।'
१. 'धर्म के दस लक्षण' से भाव ग्रहण, पृ. ७१