________________
ॐ १३२ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ *
अनुसार-जहाँ स्थावर या जंगम जीवों का विराधना न हो, ऐसे जन्तुरहित स्थान में मल-मूत्र आदि का विसर्जन करना और मृत शरीर का रखना उत्सर्ग समिति है।
'उत्तराध्ययनसूत्र' में इस समिति का विशेष स्पष्टीकरण करते हुए कहा गया है-उच्चार, प्रस्रवण, खेल, सिंघाण, जल्ल, भुक्त-शेष आहार, उपधि या मृतदेह अथवा अन्य तथाविध वस्तु का सम्यकप से परिष्ठापन करना चाहिए। परिष्ठापन के सम्बन्ध में चार विकल्प हैं-(१) जहाँ कोई व्यक्ति आए नहीं और देखे नहीं (२) जहाँ व्यक्तियों का आवागमन न हो, परन्तु देखते हों; (३) जहाँ आते-जाते हों, परन्तु देखते न हों; और (४) जहाँ व्यक्ति आते भी हों, अवलोकन भी करते हों। इन चारों में से सम्यक् परिष्ठापन के लिए प्रथम विकल्प (अनापात-असंल्लोक) ही उपादेय है। साथ ही इस समिति के शुद्ध पालन के लिए-जहाँ किसी भी प्राणिवर्ग का घात न हो अथवा किसी दूसरे को वहाँ परठने से उपघात (चोट) न पहुँचे, परिष्ठापनीय भूमि सम हो, बिल या छिद्र वाली न हो, थोड़े काल पहले ही वह दग्ध हो, विस्तीर्ण हो (सँकरी न हो), (नगर या गाँव से) दूर हो, प्रच्छन्न हो (झाड़ियों आदि से छिपी हो), एकदम निकट न हो, बिल आदि से रहित हो; त्रस, स्थावर तथा हरित तृण, बीज आदि से रहित हो, ऐसी भूमि पर उच्चार आदि का
व्युत्सर्ग करे।
परिष्ठापन-शुद्धि-विवेक तथा अतिचार
'राजवार्तिक' में कहा गया है-परिष्ठापन-शुद्धि में तत्पर संयत देश और काल को सम्यक् जानकर नख, रोम, नाक का मैल, शुक्र, थूक, मल-मूत्र या (मृत) देह के परित्याग के समय किसी जीव की विराधना या कष्ट न हो, यह देखकर प्रवृत्ति पिछले पृष्ठ का शेष
उच्चारं पस्सवणं खेलं सिंघाणमादियं दव्वं ।
अच्चित्त भूमिदेसे पडिलेहित्ता विसज्जेज्जो॥३२२॥ -मूलाचार १५, ३२१-३२२ (ग) ज्ञानसारं १८/१४ (घ) स्थावराणां जंगमानां च जीवादीनं अविरोधेनांगमलनिर्हरणं शरीरस्य च स्थापनम् उत्सर्गसमितिरवगन्तव्या।
-राजवार्तिक ९/५/८/५९४/२८ १. उच्चारं पासवणं खेलं सिंघाण-जल्लियं।
आहारं उवहिं देहं, अन्नं वावि तहाविहं ॥१५॥ अणावायमसंलोए अणावाए चेव होइ संलोए। आवायमसंलोए आवाए चेव संलोए॥१६॥ अणावायमसंलोए परस्सणुवघाइए। समे अज्झुसिरे यावि, अचिरकाल कयंमि य॥१७॥ विच्छिण्णे दूरमोगाढे, नासन्ने बिलवर्जिते। तस-पाण-बीयरहिए, उच्चाराईणि वोसिरे ॥१८॥ -उत्तराध्ययनसूत्र २४/१५-१८