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ॐ संवर और निर्जरा का स्रोत : श्रमणधर्म ® १४१ *
प्रशम सुख, शान्ति और समता के आत्म-परिणाम का नाम है-क्षमा। क्रोध, रोष, आवेश, झल्लाहट, क्षोभ, चिड़चिड़ापन, द्वेष, वैर, ईर्ष्या आदि ऐसी आग है, जिससे साधक आत्म-स्वभाव को भूलकर, उपादान को विस्मृत कर निमित्त पर बरस पड़ता है, क्षमा के उत्तम अवसर को चूक जाता है। पं. टोडरमल जी का कथन है-अज्ञान के कारण जब तक हमें पर-पदार्थ इष्ट-अनिष्ट प्रतिभासित होते रहेंगे, तब तक क्रोध आदि की उत्पत्ति एक या दूसरे रूप में होती रहेगी। किन्तु जब तत्त्वाभ्यास के बल से पर-पदार्थों में से इष्ट-अनिष्ट बुद्धि समाप्त होगी, तब स्वभावतः क्रोधादि की उत्पत्ति नहीं होगी। क्रोध का कारण उपस्थित होने पर भी शान्ति रखे, तभी उत्तम क्षमा प्रकट हुई समझो।
मिथ्यादृष्टि में अनन्तानुबन्धी क्रोध, सम्यग्दृष्टि आदि में क्यों नहीं ? मिथ्यादृष्टि के अनन्तानुबन्धी क्रोध ‘पर' में कर्तृत्व बुद्धि के कारण माना गया है। जब कोई पर-पदार्थ उसकी इच्छा के अनुकूल परिणमित नहीं होता, तब वह उस पर क्रोधित हो उठता है। पर-पदार्थ अनन्त हैं। 'पर' के प्रति पूर्वोक्त अभिप्राय के कारण अनन्त पर-पदार्थ उसके क्रोध के पात्र बन जाते हैं, इसी का नाम हैअनन्तानुबन्धी क्रोध, क्योंकि मिथ्यादृष्टि ने अनन्त पर-पदार्थों से अनुबन्ध किया है। निष्कर्ष यह है कि सम्यग्दृष्टि, अणुव्रती या महाव्रती को चारित्रमोह के उदयवश कदाचित् क्रोधादि आ जाए, फिर भी वह पर में कर्तृत्व बुद्धि नहीं रखता, निमित्त को नहीं कोसता; अनुकूल-प्रतिकूल, अभीष्ट-अनिष्ट, अच्छे-बुरे, सुख-दुःख का कर्ता दूसरों को नहीं मानता, अपने सुख-दुःख या अन्य सभी परिस्थितियों के लिए उत्तरदायी या उपादान स्वयं को मानता है, इस कारण पूर्व संस्कारवश कभी क्रोध आ भी जाए, तो वह अशुभ कर्मबन्ध का कारण नहीं होगा।
उत्तम क्षमा की सात कसौटियाँ उत्तम क्षमा कब और कैसे होती है, कब और कैसे नहीं? इस सम्बन्ध में कविवर द्यानतराय जी ने एक पद्य के द्वारा ७ कसौटियाँ बताई हैं। प्रस्तुत है
वह पद्य
१. (क) 'आवश्यकसूत्र, प्रतिक्रमण आवश्यक' में क्षमापना पाठ
(ख) 'शान्तिपथदर्शन' (जिनेद्रवर्णी) से भाव ग्रहण, अ. ३१, पृ. ४०१ (ग) 'मोक्षमार्ग-प्रकाशक' (पं. टोडरमल जी) से भाव ग्रहण
(घ) 'जैन सिद्धान्त बोल संग्रह, भा. ३' से भाव ग्रहण, बोल ६६१, पृ. २३३ २. कविवर द्यानतराय जी का यह पद्य ‘धर्म के दस लक्षण' (डॉ. हुकमचन्द भारिल्न) से उद्धृत,
पृ. २४-२५