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ॐ १४२ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ *
“गाली सुन मन खेद न आनौ, गुन को औगुन कहै बखानौ। करे हैं बखानो, वस्तु छीने, बाँध मार बहुविधि करै।
घर तें निकारै, तन विदारै, वैर जो न तहाँ धरै।।" पहली कसौटी-गाली (अपशब्द, निन्दा, बदनामी आदि) सुनकर भी तन-वचन को विकृत न करे इतना ही नहीं, मन में जरा भी खेद (क्षोभ, रोष, मलिनता) न लावे। यहाँ यह बात ध्यान में रखना है कि अधिकारी या मालिक की डाँट-फटकार सुनकर नौकरी चले जाने के भय से चुप रहना, क्रोध न करना पर मन में खेद खिन्न होना क्षमा नहीं है। उसके मन में तो गुस्सा भरा है अथवा बदला लेने की शक्ति का अभाव होने से चुप्पी साध लेना, पर मन ही मन इस प्रकार बड़बड़ाना'शक्ति होती तो मजा चखा देता, अच्छा, अब न सही, फिर देख लूँगा इसे', यह भी क्षमा नहीं है। अन्तर में कटु द्वेष की ज्वाला जल रही है, बाहर से मीठा बोलते हुए कहना-'जा, तुझे माफ करता हूँ', यह भी क्षमा नहीं है अथवा प्रतिद्वन्द्वी को पहले खूब मार-पीटकर या डाँट-फटकारकर अपना गुस्सा उतार लेने के बाद कहना'जा, तुझे माफ किया, फिर ऐसा न करना', यह भी कहने भर की क्षमा है, द्वेष से भरा क्षमा का नाटक है। जहाँ अन्तरंग में अपकार करने वाले के प्रति मन में भी द्वेष न हो, वहाँ सम्यग्दृष्टि व्यक्ति के क्षमा हो सकती है। कई व्यक्ति कहा करते हैंवैसे तो मेरा स्वभाव शान्त है, पर मुझे कोई छेड़े तो फिर रहा नहीं जाता, यह क्षमा नहीं है। ___ दूसरी कसौटी-कई लोग कहते हैं-देने दो इसे गालियाँ, हमारा क्या बिगड़ता है, सहन कर लेंगे, पर जब हमारे में कोई अवगुण नहीं है, सब काम ठीक से ईमानदारीपूर्वक करते हैं, फिर भी यह हमारे गुण को अवगुण के रूप में प्रकट करता है, वह भी भरी सभा में या चार आदमियों के बीच में, तब कैसे सहन कर लें? परन्तु यह तो क्रोध का क्रोध ही है, क्षमा नहीं है।
तीसरी कसौटी-मान लो, किसी को तब भी क्रोध न आए, परन्तु जब उसकी कोई वस्तु छीनने लगे, अधिकार हड़पने लगे, तब यदि मन में भी ताव आ जाता है, तो समझ लो, क्षमा में कमी है। ____ चौथी कसौटी मान लो, कोई वस्तु या अधिकार छीनने पर भी क्रोध न आए, परन्तु कोई उसे बाँधकर मारपीट करे या रस्सों से जकड़कर उसके सामने उसके किसी प्रिय व्यक्ति को पीटने लगे या अनेक प्रकार से उसे सताए, पीड़ा दे तो वह झल्लाए बिना नहीं रहता, बाहर से नहीं तो मन ही मन बड़बड़ाता है। वह भी क्षमा नहीं है।
१. 'शान्तिपथदर्शन' में उत्तम क्षमा के विश्लेषण से भाव ग्रहण, पृ. ३१