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१२२ ® कर्मविज्ञान : भाग ६ *
जाएगी। इसलिए भाषासमिति की साधना से संवर-उपार्जन हेतु निरवद्य चिन्तनरूप भाषा-प्रयोग अथवा निरवद्य मौन का प्रयोग करना श्रेयस्कर होता है। भगवान महावीर व्यक्त भाषा और अव्यक्त भाषा (मौन) दोनों को स्वीकार करते हैं। उनका दृष्टिकोण यह है कि राग-द्वेषयुक्त या कषाययुक्त शब्द कर्मविमोचक अथवा कर्मनिरोधक नहीं होता, वह कर्मबन्धक होता है, इसके विपरीत राग-द्वेष या कषाय से रहित शब्द प्रयोग कर्मबन्धक नहीं होता। वह या तो कर्मनिरोधक होगा या कर्मक्षयकारक होगा। इसलिए भाषा का प्रयोग हो या मौन हो, दोनों ही भाषासमिति बन सकते हैं, बशर्ते कि वह भाषा या मौन भाषा राग, द्वेष, कषाय या नोकषाय से युक्त न हो। दूसरे शब्दों में-"जो भाषा आदमी को राग-द्वेष या कषाय से जोड़ती है, जो आदमी को परस्पर लड़ाती है, वह वितण्डावाद या बकवास है, इसके विपरीत जो भाषा आदमी को जोड़ती है, वह भाषासमिति है।" भाषासमिति का दोहरा कार्य ___ इसे एक उदाहरण द्वारा स्पष्टतः समझ लेना ठीक होगा-एक बार महाराजा रणजीतसिंह हिन्दूधर्म के अनुसार माला फेर रहे थे मनकों को भीतर की ओर लेकर; पास ही बैठे फकीर अजीजुद्दीन इस्लामधर्म के अनुसार भी माला फेर रहे थे मनकों को बाहर की ओर लाकर। सहसा महाराजा रणजीतसिंह का ध्यान इस ओर गया। उन्होंने फकीर से पूछा-"शाह साहब ! यह बताइए कि तस्वीह के मनके अंदर की ओर फेरने चाहिए या बाहर की ओर?" फकीर क्षणभर रुककर बोले-विद्वानों ने माला फेरने के दो प्रयोजन बताये हैं-दूसरे की अच्छाइयों को भीतर ग्रहण करने का और अपनी बुराइयाँ बाहर निकालने का। आप सदैव अच्छी बातें ग्रहण करते हैं, इसलिए माला भीतर की ओर फेरते हैं। मैं अपनी बुराइयाँ बाहर निकालने के लिए प्रयत्नशील हूँ, इसलिए तस्वीह के मनके बाहर की ओर फिराता रहता हूँ। यही भाषासमिति के पूर्वोक्त दोनों उद्देश्य हैं। एक ओर से निरवद्य मौन भाषा का प्रयोग किया जाता है, तब वह (भाषासमिति) अंदर की ओर प्रवृत्त होती है, दूसरी ओर जब निरवद्य व्यक्त भाषा के रूप में उसका प्रयोग किया जाता है, तब वह बाहर की
ओर प्रवृत्त होती है। अतएव भाषासमिति गुणग्रहण के रूप में अन्तर्मुखी भी है और दोष-निष्कासन के रूप में बहिर्मुखी भी है अथवा भाषासमिति अन्तर में अपनी आत्मा को अन्तर्मुखी बनाने की प्रेरणा देने वाली भी है और बाहर में स्व-पर के दुर्गुणों को बाहर निकालने की प्रेरणा देने वाली भी है।२
१. 'साधना का सोना : विज्ञान की कसौटी' (मुनि सुखलाल) के 'भाषासमिति : एक अध्ययन
लेख से भावांश ग्रहण, पृ. १०३ २. वही, पृ. १०४