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ॐ १२० ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ *
पटकायिक जीवों की रक्षा तथा उनकी दया के विचार से भूमि को भलीभाँति देखकर आगे दृष्टि रखकर शान्तिपूर्वक धीरे-धीरे गमन करना-चलना ईर्यासमिति है। ईर्यासमिति-पालन में कुछ सावधानी रखनी चाहिए
‘भगवती आराधना' में भी गमनागमन करते समय कुछ सावधानियों का निर्देश किया गया है-“मार्ग में गधा, ऊँट, बैल, हाथी, घोड़ा, भैंसा, कुत्ता और कलह करने वाले लोगों का दूर से ही त्याग करे, अर्थात् उनसे वचकर दूसरे निरापद मार्ग से जाए। इसी प्रकार रास्ते में भूमि के समानान्तर फलक, पत्थर वगैरह चीजें पड़ी हों, वहाँ उनसे बचकर चले अथवा दूसरे मार्ग से प्रवेश करना पड़े या भिन्न वर्ण की भूमि (मिट्टी) हो, तो वहीं से ही प्रमार्जनी से अपने हाथ-पैर आदि अंगों का प्रमार्जन करके फिर आगे बढ़े।" ईर्यासमिति के कतिपय अतिचार : दोष
इसी ग्रन्थ में ईर्यासमिति के अतिचार इस प्रकार के बताये गए हैं-सूर्य के मन्द प्रकाश में गमन करना, जहाँ पैर रखना हो वह जमह नेत्रों से अच्छी तरह न देखना, चलते समय मन को अन्यान्य कार्यों में लगाना इत्यादि।२ ___ आशय यह है कि इधर-उधर व्यर्थ भटकना, अपने मनोरंजन के लिए मनोरंजन-गृहों अथवा अन्य ऐसे समारोहों में जाना, महफिलों या कर्मबन्धजनक स्थानों में जाना अथवा बिना ही किसी अपवाद के जलयान, व्योमयान अथवा स्थलयान आदि द्वारा सैरसपाटे करना अथवा पैदल भी बिना किसी प्रयोजन के सैर करना ईर्यासमिति नहीं है, न ही उससे किसी प्रकार का संवर होता है; क्योंकि ऐसी गमनादि चर्याओं में अशुभ योगों से निवृत्ति भी प्रायः नहीं होती। मार्गानुसारी सद्गृहस्थ के लिए भी आवारा भटकना वर्जित है।
१. 'तत्त्वार्थसूत्र वि.' (उपाध्याय केवल मुनि) से भाव ग्रहण, पृ. ४०५ २. (क) खरान् करभान् वलिवान् गजां स्तुरगान् महिषान् सारमेयान् कलहकारिणो वा
मनुष्यान् दूरतः परिहरेत्। मृदुना प्रतिलेखनेन कृतप्रमार्जनो गच्छेद्यदि निरन्तरसुसमाहित-फलादिकं वाग्रतो भवेत् मार्गान्तरमस्ति। भिन्नवर्णा वा भूमि प्रविशंस्तदवर्णभूभाग एव अंगप्रमार्जनं कुर्यात्।
-भगवती आराधना (वि.) १२०६, १२०४/४ (ख) ईर्यासमितेरतिचार:-मन्दालोकगमनं, पद-विन्यास-देशस्य सम्यगनालोकनम्, अन्यगत चित्तादिकं।
वही १६/६२/४