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८० कर्मविज्ञान : भाग ६
इधर से सफाई करेगा, उधर से आँधी के सहारे धूल, कचरा अन्दर घुसता जाएगा। ऐसी सफाई का कोई अर्थ नहीं होगा। यह तो हस्ति-स्नान जैसी निरर्थक सफाई होगी। हाथी तालाब में घुसकर अपने शरीर पर खूब पानी डालता है, तब एक बार तो सारा मैल धुल जाता है । परन्तु स्नान करके तट पर आते ही वह अपनी सूँड़ से रेत, कीचड़ आदि लेकर पुनः शरीर पर उछालता है। इस स्नान का क्या अर्थ हुआ ? यह तो पहले से भी अधिक गंदगी बटोरना हुआ। इसी प्रकार आत्म-शुद्धि-साधक निर्जरा ( कर्मक्षय) के लिए व्रत, प्रत्याख्यान, तप आदि की साधना करता रहे, परन्तु उसके साथ ही मन-वचन-काया के नालों द्वारा कषाय-राग-द्वेषादि विकारों के कारण तेजी से आते हुए कर्म - प्रवाह को रोके नहींआम्रव-निरोध करे नहीं, तो उसकी स्थिति भी हास्यास्पद हुए बिना नहीं रहती । ' 'ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया २ का रहस्य
आँधी, वर्षा और तूफान आ रहा हो, उस समय चादर पर लगे हुए मैल और धब्बे को साफ करने से पहले धोबी यह देखता है कि एक-दो दागों और मैल को साफ करने से पहले मैं आँधी-तूफान आने के द्वार को बन्द कर दूँ, ताकि आँधी-तूफान से इस चादर पर और अधिक धब्बे और मैल न लग जाए। ऐसा करने के बाद ही वह सफाई करना शुरू करता है।
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संत कबीर ने कहा था - "ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया ।" आत्मा पर देहरूपी चादर को उन्होंने जैसे ओढ़ी थी, वैसे ही रख दी । अतीत की चादर पर तो उन्होंने धब्बा नहीं लगने दिया। वर्तमान में जो काम-क्रोधादि विकार चादर को मलिन करने वाले थे, उनसे भी उन्होंने चादर को बचाया । निष्कर्ष यह है कि वर्तमान में आस्रव का निरोध किया और भूतकालीन चादर को भी संयम, तप आदि द्वारा शुद्ध रखा। तभी वह चादर जैसी की तैसी रही होगी ।
इसी प्रकार आत्मा में एक ओर से नये-नये क्रोधादि कषाय, राग-द्वेष, मोह, काम आदि के कारण शुभ-अशुभ कर्म दबादब प्रविष्ट हो रहे हैं और दूसरी ओर, पहले से काम, क्रोधादि कषाय, मोह, राग-द्वेष आदि कर्मशत्रुओं के कारणभूत अशुभ कर्म भी आत्मा में घुसे हुए हैं। अतः प्राज्ञ सतर्क संवर- निर्जरा - साधक पहले नये कर्मों और कर्मों के स्रोतों को आने से रोकेगा, यानी पहले वह संवर - साधना अपनायेगा; जबकि दूसरी ओर से पहले से प्रविष्ट एवं आत्मा को मलिन व अशुद्ध करने वाले अशुभ कर्मों को क्षमादि धर्म, रत्नत्रय, परीषहजय, उपसर्ग-सहन, चारित्र- पालन बाह्याभ्यन्तर तप आदि के माध्यम से मिटाएगा, खदेड़ देगा और
'अपने घर में' से भावांश ग्रहण, पृ. ९
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२. संत कबीर का एक पद