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* संवर और निर्जरा का प्रथम साधन : गुप्तित्रय * ९१ ॐ
वस्तुतः नये कर्मों के आने के कारणों को रोकना संवर है। जिस प्रकार नौका में छिद्र के रुक जाने पर उसमें जल का प्रवेश रुक जाता है, उसी प्रकार आत्मा के द्वारा गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय तथा चारित्र और तपश्चर्या के एवं सम्यग्दर्शनादि के परिणामों से विविध कर्मों के आस्रव और बंध के कारणभूत मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कषाय, योग तथा राग-द्वेष एवं नोकषाय आदि का रुक जाना या अंशतः क्षय हो जाना क्रमशः संवर और निर्जरा है। ‘राजवार्तिक' के अनुसार तात्पर्य यह है कि जिस नगर के द्वार भलीभाँति बंद हों, उस नगर में शत्रुओं का प्रवेश नहीं हो सकता, उसी प्रकार गुप्ति, समिति, धर्म, अनुप्रेक्षा, परीषहजय और चारित्र के द्वारा जिस आत्मा ने मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद, योग एवं इन्द्रियाँ आदि द्वार संवृत कर लिये हैं, उस आत्मा के नवीन कर्मों का द्वार रुक जाना संवर है। अर्थात् वह जीव कर्मों के कारणभूत मिथ्यात्व आदि को गुप्ति आदि रक्षकों के बल से आत्मा में प्रविष्ट नहीं होने देता। ‘भगवती आराधना' के अनुसार-“जिन सम्यग्दर्शनादि परिणामों से अथवा समिति-गुप्ति आदि परिणामों से मिथ्यादर्शनादि परिणामों का निरोध किया जाता है, वह संवर है।"२
संवर के मुख्य दो भेद : द्रव्य-संवर, भाव-संवर : लक्षण और कार्य ___ 'आचार्य पूज्यपाद' ने संवर के दो भेद किये हैं-द्रव्य-संवर और भाव-संवर। संसार की निमित्तभूत क्रिया की निवृत्ति होना भाव-संवर है और इसका (उपर्युक्त क्रिया का) निरोध होने पर तत्पूर्वक होने वाले कर्म-पुद्गलों के ग्रहण का विच्छेद होना द्रव्य-संवर है। 'द्रव्यसंग्रह टीका' में इनका परिष्कृत लक्षण इस प्रकार है“आम्रवरहित सहज स्वभाव होने से समस्त कर्मों को रोकने में कारण जो शुद्ध परम आत्म-तत्त्व है, उसके स्व-भाव से उत्पन्न शुद्ध चेतन-परिणाम भाव-संवर है
और कारणभूत भाव-संवर से उत्पन्न हुआ कार्यरूप जो नवीन द्रव्यकर्मों के आगमन का अभाव, वह द्रव्य-संवर है। संक्षेप में कहें तो कर्मों के पुद्गलों का आगमन या प्रवेश रुकं जाना द्रव्य-संवर है और उन कर्म-पुद्गलों को रोकने में जो आत्मा के भाव निमित्त बनते हैं, वे आत्म-परिणाम भाव-संवर हैं।
१. (क) रुंधिय छिद्दसहस्से जलजाणे जह जलं तु णासवदि, मिच्छत्ताइ-अभावे तह जीवे संवरो होइ।
__ -नयचक्र वृत्ति १५६ (ख) यथा सुगुप्त-सुसंवृत द्वारकवाटं पुरं सुरक्षितं दुरासादमरातिभिर्भवति, तथा सुगुप्ति___ समिति-धर्मानुप्रेक्षा-परीषहजय-चारित्रात्मनः सुसंवृतेन्द्रियकषाययोगस्य अभिनवकर्मागम द्वारसंवरणात् संवरः।
-राजवार्तिक १/४/११, १८ २. संवियते संरुध्यते मिथ्यादर्शनादिः परिणामो येन परिणामान्तरेण सम्यग्दर्शनादिना गुप्त्यादिना वा स संवरः।
-भगवती आराधना (वि.) ३८/१३४/१६