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* ९६ कर्मविज्ञान : भाग ६
परिहार अथवा असत्यादि से निवृत्ति वाले वचन बोलना व्यवहार से वचनगुप्ति है। 'भगवती आराधना' के अनुसार - जिससे दूसरे प्राणियों को उपद्रव होता है, ऐसे भाषण से आत्मा का परावृत्त होना वाग्गुप्ति है अथवा जिस भाषण में प्रवृत्ति करने वाली आत्मा अशुभ कर्म को अपना लेती है, ऐसे भाषण से परावृत्त होना भी वाग्गुप्ति है या समस्त प्रकार के वचनों का त्याग या मौन धारण करना वाग्गुप्ति है।
कायगुप्ति का लक्षण - 'नियमसार' का कथन है- औदारिकादि शरीर की जो क्रिया होती रहती है, उससे निवृत्त होना अथवा हिंसा, चोरी आदि पाापक्रियाओं से परावृत्त होना काय गुप्ति है। 'ज्ञानार्णव' में इसका लक्षण इस प्रकार हैं- " जिस साधक ने शरीर को इतना स्थिर कर लिया है कि परीषह आ जाने पर भी अपने पर्यंकासन से डिगे नहीं, हिले-डुले नहीं, स्थिर रहे, उस मुनि के कायगुप्ति मानी गई है ।" 'नियमसार टीका' में कहा गया है - समस्तजनों के काया सम्बन्धी बहुत-सी क्रियाएँ होती हैं, उनका निवृत्तिरूप कायोत्सर्ग ही कायगुप्ति है अथवा काया से पाँच -स्थावरों और समस्त त्रसजीवों की हिंसा से निवृत्ति कायगुप्ति है । अथवा " बन्धन, छेदन, मारण, आकुंचन, प्रसारण इत्यादि कायिक क्रियाओं से निवृत्ति कायगुप्ति कही है। २
गुप्तित्रय: सच्चे अर्थों में गुप्ति कब ?
शरीर को भलीभाँति वश में करना, वचन का सम्यक् प्रकार से अवरोध करना एवं मन का सम्यक्तया विरोध करना ही क्रमशः सच्चे माने में त्रिगुप्ति है, संवरयोग्य है। तात्पर्य यह है - ख्यातिलाभ, पूजादि की वाञ्छा के
१. (क) अलीयादि - णियत्ती वा मोणं वा होइ वदिगुत्ती ।
- नियमसार ६९-७०, धवला १/१, १, २/११६/९
(ख) साधुसंवृत्तवाग्वृत्तैर्मौनारूढस्य वा मुनेः । संज्ञादि- परिहारेण वाग्गुप्तिः स्यान्महामुनेः ॥
- ज्ञानार्णव १८
( ग ) थी - राज - चोर - भत्त - कहादि-वयणस्स पावहेउस्स परिहारोवचगुत्ती, अलीयादि- णियत्ती वयणं वा ।
- नि. सा. ६७
२. (क) कायकिरिया - णित्ती काउसग्गे सरीरेगुत्ती |
हिंसाइणियत्तो वा सरीरगुत्तीति णिट्ठिा ॥
(ख) स्थिरीकृत शरीरस्य पर्यंकसंस्थितस्य वा ।
- नियमसार ६९/७०
- ज्ञानार्णव १८
परीषहप्रणपातेऽपि कायगुप्तिर्मता मुनेः ॥ (ग) सर्वेषां जनानां कायेषु बह्वयः क्रियाविद्यन्ते, तासां निवृत्तिः कायोत्सर्गः, स एव काय गुप्तिर्भवति । पंचस्थावरणां त्रसानां हिंसानिवृत्तिः कायगुप्तिर्वा ।
- नियमसार ता. वृ. ७०