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ॐ १०८ 8 कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
“धीर साधक जहाँ भी अपने आप को अपने मन से, वचन से अथवा काया से दुष्प्रयुक्त जाने-देखे, वहीं उसी क्षण, उसी प्रकार स्वयं को वापस खींच ले, जैसे उत्पथ पर जाते हुए अश्व को अश्वारोही लगाम खींचकर तुरन्त रोक लेता है।"१
“समस्त सुसमाहित इन्द्रियों से सदा सतत आत्मा की (पर-भावों और विभावों से) रक्षा करनी चाहिए, क्योंकि (पर-भावों और विभावों से) अरक्षित आत्मा जन्म-मरणादि संसारयुक्त पथ पर पहुँच जाती है और सुरक्षित आत्मा सभी दुःखों से मुक्त हो जाती है।"२ गुप्ति-पालन में सावधानी न रखे तो शीघ्र पतन - गुप्ति को जीवन में कार्यान्वित करने के लिए साधक को एक क्षण का भी विलम्ब किये बिना अपने तन-मन-वचन में आने वाले विभाव या पर-भाव को रोकना चाहिए। एक उदाहरण लीजिए-सुप्रसिद्ध योगी आनन्दघन जी आत्म-साधना में लीन रहते थे। एक बार उनके पास एक संन्यासी आया और बोला-“मैं आपके लिए एक रस कुप्पी की शीशी लाया हूँ। इस रस की एक बूंद हजारों-लाखों मन लोहे को सोना बना सकती है। आप इसे स्वीकार कीजिए।" आत्म-रक्षाकारिणी भावगुप्ति में लीन आनन्दघन जी ने उनसे पूछा-"क्या इसमें आत्मा है?" संन्यासी-“आत्मा-वात्मा की क्या बात करते हैं आप? इसमें तो सिद्धरस है।" आनन्दघन जी ने गुप्तिमाता का तत्काल स्मरण करते हुए कहा-"जिसमें आत्मा नहीं, जिससे आत्मा की पर-भावों और विभावों से रक्षा नहीं, जिससे आत्म-हित नहीं, वह वस्तु मेरे किसी काम की नहीं है। मुझे वह नहीं चाहिए।' संन्यासी ने विनम्र स्वर में कहा-“मेरे गुरु बहुत बड़े सिद्धपुरुष हैं। उनके जैसा दूसरा कोई योगी आज मेरे देखने में नहीं आया। मैंने आपके लिए आपके प्रति मित्रता के नाते, उनकी सेवा करके यह बहुमूल्य वस्तु प्राप्त की है। इसे लौटाइये मत। किसी भक्त का उद्धार कर देना।" आनन्दघन जी-“बन्धु ! आत्मरस इससे भी अनन्तगुणा मूल्यवान है, जड़रस की कीमत उसके आगे कानी कौड़ी भी नहीं है।" यों कहते हुए उन्होंने रसकुप्पी का ढक्कन खोलकर रस बहा दिया। संन्यासी की आँखें यह देखकर क्रोध से लाल हो गईं। आनन्दघन जी ने उन्हें शान्त करते हुए कहा-“बन्धु, हम संन्यासी हुए हैं आत्मरस पाने के लिए। हमें तो सदैव यह विचार
१. जत्थेव पासे कइ दुप्पउत्तं. कारण, वाया अदुमाणसेण।
तत्थेव धीरो पडिसाहरिज्जा, आइन्नओ खिप्पमिद खलीणं ॥१४॥ २. अप्पा खलु सययं रक्खियव्यो, सव्विंदिएहिं सुसमाहिएहिं। . अरक्खिओ जाइपहं उवेइ, सुरक्खिओ सव्वदुहाण मुच्चइ॥१६॥
___-दशवैकालिकसूत्र, द्वितीय चूलिका, गा. १४, १६