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* संवर और निर्जरा का प्रथम साधन : गुप्तित्रय @ १०९ *
करना चाहिए कि अपना आत्मरस कहाँ दल रहा है ?" इस पर संन्यासी ने पूछा“परन्तु क्या स्वर्णसर्जकं सिद्ध करने की शक्ति आपके पास है ?" योगी आनन्दघन जी-“आपको चाहिये क्या?' यों कहकर उन्होंने पास में ही पड़े हुए शिलाखण्ड पर पेशाब किया, तो तुरन्त ही वह सोने का बन गया। यह देखते ही संन्यासी का क्रोध हवा हो गया। सोचा-इतनी महान शक्ति, जो इतने बड़े प्रलोभन को एकदम रोक देती है, फिर भी इतनी सरलता, इतनी विनम्रता और प्रसिद्धि-कामना नहीं !'' वह संन्यासी आनन्दघन जी के चरणों में गिर पड़ा। “जिनने आत्म-रमणता के लिए सिद्धियों और प्रसिद्धियों का लोभ संवरण कर लिया है, जिन्हें पद-पद पर आत्म-गुप्ति (आत्म-रक्षा) की चिन्ता है, धन्य है उन्हें !"१ यह है-गुप्तित्रय का ज्वलन्त उदाहरण !
समिति और गुप्ति दोनों प्रवृत्ति-निवृत्तिरूप हैं तात्पर्य यह है कि समिति में सक्रिया = सम्यक् प्रवृत्ति की मुख्यता है, जबकि गुप्ति में असक्रिया के निषेध की मुख्यता है। इसीलिए 'बृहद्वृत्ति' में कहा गया हैगुप्तियाँ प्रविचार और अप्रविचार दोनों रूप होती हैं। वैसे समिति और गुप्ति दोनों चारित्रररूप हैं तथा चारित्र-ज्ञान-दर्शन से अविनाभावी है। समिति में नियमतः गुप्ति होती है, क्योंकि उसमें शुभ में प्रवृत्ति के साथ अशुभ से निवृत्तिरूप अंश नियमतः गुप्ति का अंश है। गुप्ति में प्रवृत्ति-प्रधान समिति की भजना है अर्थात् गुप्तियाँ एकान्त निवृत्तिरूप ही नहीं, प्रवृत्तिरूप भी होती हैं। यही कारण है कि इन्हें प्रवृत्तिरूप अंश की अपेक्षा से इन आठों को ‘समिति' भी कह दिया गया है।
___ तीनों गुप्तियों का व्यवहारदृष्टि से संक्षिप्त लक्षण वस्तुतः गुप्ति में मन-वचन-काया इन तीनों के अशुभ योगों का निरोध ही मुख्य है। योग तीन हैं, वैसे गुप्ति भी तीन हैं। मनोयोग को दुष्ट संकल्पों, दुर्विचारों से रहित रखना, मन में दुर्ध्यान और दुश्चिन्तन न होने देना मनोगुप्ति है। वचनयोग का दुष्प्रयोग न करना, विवेकपूर्वक वचनयोग को शान्त रखना अथवा मौन का अवलम्बन लेना वचनगुप्ति है तथा काययोग का निश्चलन एवं नियमन कायगुप्ति है। ये तीनों गुप्तियों के व्यावहारिकदृष्टि से लक्षण हैं। इनसे पूर्वोक्त प्रकार से
१. 'अमर भारती (मासिक) जुलाई. १९६७ से संक्षिप्त २. (क) उत्तराध्ययनसूत्र (आगम प्रकाशन समिति. व्यावर),अ. २४. पृ. ४११
(ख) उत्तगध्ययन वृहद्वृत्ति पत्र ५१४ (ग) समिओ नियमा गुत्तो. गुत्तो समियतणमि भइयव्यो। (घ) एया अट्ट समिईआ।
-उत्तरः ययनसूत्र, अ. २४, गा. ३ .