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ॐ ११२ ॐ कर्मविज्ञान : भाग ६ ॐ
समिति क्या है? उससे संवर-निर्जरा कैसे हो सकती है?
प्रवृत्ति पर इस प्रकार के संयम, नियमन, विवेक और यतना को कर्मविज्ञानविदों ने समिति कहा है। आचार्य नमि ने ‘समिति' का व्युत्पत्यर्थ किया हैसम् = एकीभावेन, इतिः प्रवृत्तिः समितिः, शोभनैकाग्र-परिणाम-चेष्टेत्यर्थः। अर्थात् प्राणातिपात आदि अठारह पापों से विरत रहने के लिये प्रशस्त एकाग्रतापूर्वक की जाने वाली आगमोक्त सम्यक् प्रवृत्ति समिति है। तात्पर्य यह है कि कर्ममुक्ति के लिए . उद्यत साधक यदि किसी भी प्रवृत्ति को प्रारम्भ करने से पहले यतना, सम्यक् विवेक, अनावश्यक प्रवृत्ति से निवृत्ति तथा आवश्यक प्रवृत्ति की मात्रा एवं संयम का. भान रखता है, साथ ही प्रत्येक प्रवृत्ति के साथ प्रियता-अप्रियता, आसक्ति-घृणा, राग-द्वेष आदि के प्रवाह में न बहने का विवेक रखता है, तो वह कर्ममुक्ति के लिए आवश्यक संवर और निर्जरा का, कम से कम शुभ योग-संवर का उपार्जन कर सकता है। समिति का व्यवहार और निश्चयदृष्टि से अर्थ
इस अपेक्षा से आचार्यों ने ‘समिति' का व्यवहार और निश्चय दोनों दृष्टियों से अर्थ किया है। (१) व्यवहारदृष्टि से-पूर्वोक्त अर्थ के सन्दर्भ में 'सर्वार्थसिद्धि' में कहा गया है-प्राणिपीड़ा के परिहार के लिए सम्यक् प्रकार से अयन = प्रवृत्ति करना समिति है। 'उत्तराध्ययनसूत्र' की टीका के अनुसार-सर्वज्ञवचनानुसार आत्मा की सम्यक् (यतना एवं विवेकपूर्वक) प्रवृत्ति समिति है। (२) दूसरा अर्थ 'प्रवचनसार' में निश्चयदृष्टि से किया गया है-“निश्चय से, स्व-स्वरूप में सम्यक् प्रकार से (इत) गमन अर्थात् परिणमन समिति है।" 'नियमसार' वृत्ति के अनुसार-“अभेद-अनुपचार से रत्नत्रयरूप मोक्षमार्ग पर स्व-परमधर्मी आत्मा के प्रति सम्यक् इति यानी गति = परिणति समिति है।" अथवा "निज परम तत्त्व में लीन सहज परम ज्ञानादिक परम धर्मों की संहति (मिलन = संगठन) समिति है।" 'द्रव्यसंग्रह टीका' में इसका परिष्कृत स्वरूप इस प्रकार अंकित है-“निश्चयनय की अपेक्षा अनन्त-ज्ञानादि स्वभाव-धारक निज आत्मा में सम यानी सम्यक् प्रकार से, अर्थात् समस्त रागादि विभावों के त्याग द्वारा आत्मा में लीन होना, आत्मा का चिन्तन करना, तन्मय होना इत्यादि रूप से अयन (गमन) यानी परिणमन होना समिति है।"२
१. (क) 'श्रमणसूत्र' (उपाध्याय अमर मुनि) से भाव ग्रहण. पृ. २६६
(ख) सर्वार्थसिद्धि ९/२/४०९ ।
(ग) उत्तराध्ययनसूत्र प्रियदर्शिनी टीका, अ. २४ २. (क) निश्चयेन तु स्व-स्वरूपे सम्यगितो गतः परिणतः समितः।
-प्रवचनमार ता. वृ. २४०/२३२/२१