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ॐ संवर और निर्जरा का प्रथम साधन : गुप्तित्रय 8 १०३ 8
स्वाभाविक है। 'काय' का अर्थ यहाँ शरीर है और गप्ति का अर्थ है-रक्षा। शरीर की रक्षा के लिए तो मनुष्य धन, जन, मकान, आजीविका, सुख-सुविधा, इन्द्रिय-विषय सुखों का उपभोग, विविध रसायन, औषध आदि का सेवन करता ही है। फिर शरीर की इस प्रकार की रक्षा से राग-द्वेष, कषाय, मोह, आसक्ति आदि बढ़ जाने के कारण तो अशुभ आस्रव और अशुभ कर्मबन्ध अधिकाधिक होता जाएगा जिसका कटुफल भोगना पड़ेगा।
शरीर को महत्त्व इतना क्यों ? इसकी रक्षा क्यों ? शरीर रक्षा का यहाँ क्या मतलब है ? क्यों और किसलिए तथा किनसे शरीर की रक्षा की जाए? इसके उत्तर में भगवान तथा विविध आचार्यों का कहना है"जिस प्रकार पर्वत से शीतल, निर्मल जल का झरना प्रवाहित होता है, उसी प्रकार शरीर से भी धर्म प्रवाहित होता है। अतः धर्म के साधनरूप शरीर की रक्षा प्रयत्नपूर्वक करनी चाहिए।'' कहा भी है
“शरीरमाद्यं खलु धर्म-साधनम्।" -शरीर ही धर्म का प्रथम साधन है। शरीर नहीं होगा तो केवल आत्मा से धर्म-पालन या क्षमादि या तप-संयमादि धर्म का आचरण कैसे हो सकेगा? 'दशवैकालिकसूत्र' में भी कहा गया है
“मोक्ख-साहणहेउस्स साहु देहस्स धारणा।" -मोक्ष का साधन होने से साधु के लिए देह का धारण करना उचित है। 'ऋषिभाषित' में भी कहा गया है-“जिस प्रकार समुद्र पार करने के लिये नाविक नौका की देखभाल करता है, जंगल पार करने के लिए सवार घोड़े की रक्षा व सँभाल करता है, पेट भरने के लिये भूखा व्यक्ति भोजन की रखवाली करता है, उसी प्रकार संसार से पार उतरने (पहुँचने) के लिए साधक देह की रक्षा करता है।'' उत्तराध्ययनसूत्र' में भी स्पष्ट कहा है-“शरीर को नौका कहा है और जीव उस नौका की देखभाल करके चलाने वाला नाविक है। यह जन्म-मरणादिरूप संसार-समुद्र है। महर्षि या मोक्षरूप महान् लक्ष्य को प्राप्त करने के अन्वेषक, इस शरीररूपी निश्छिद्र एवं सुदृढ़ शरीर-नौका द्वारा संसार-सागर को पार कर जाते हैं।" . इस दृष्टि से हम यह कह सकते हैं कि शरीर का महत्त्व इसलिए है कि इससे तप, संयम आदि की साधना द्वारा, मोक्ष (कर्ममुक्ति) की मंजिल प्राप्त की जा सकती है। फिर शरीर मन्दिर है, आत्म-देवता के निवास के लिए। भगवान महावीर