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ॐ संवर और निर्जरा का प्रथम साधन : गुप्तित्रय * ९५ *
एक दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है-जिस प्रकार आँधी और हवा के साथ भवन में कचरा घुस जाता है, तब भवन के द्वार बन्द कर देने से कचरा नहीं आता, इसी प्रकार आत्म-भवन में कर्मरूप कचरे को आने से रोक देना गुप्ति है। अतएव गुप्ति संवर भी है, संयम भी।' 'स्थानांगसूत्र वृत्ति' में गुप्ति के दो रूप बताए गए हैं-“गोपनं गुप्तिः-मनःप्रभृतीनां कुशलानां प्रवर्तनम, अकुशलानां च निवर्तनम्।" मन आदि की शुभ में प्रवृत्ति और अशुभ से निवृत्ति। यों गुप्ति प्रवर्तक भी है, निवर्तक भी।
तीनों गुप्तियों के लक्षण मनोगुप्ति का लक्षण–'नियमसार' के अनुसार-“राग-द्वेषादि विकल्पों से मन का निवृत्त होना मनोगुप्ति है।" अथवा समस्त मोह, राग और द्वेष के अभाव के कारण अखण्ड अद्वैत परमचिद्रूप में सम्यक् रूप से मन का अवस्थित रहना ही निश्चय मनोगुप्ति है। “व्यवहारनय से-कलुषता, मोह, राग, द्वेष आदि अशुभ भावों के परिहार को मनोगुप्ति कहा है।'' 'ज्ञानार्णव' में इसका परिष्कृत लक्षण इस प्रकार दिया गया है-राग-द्वेष से अवलम्बित समस्त संकल्पों को छोड़कर जो मुनि अपने मन को स्वाधीन करता है और समताभाव में स्थिर करता है तथा सिद्धान्त के सूत्र की रचना में निरन्तर प्रेरणारूप है, उस मनीषी मुनि के पूर्ण मनोगुप्ति होती है।२
वचनगुप्ति का लक्षण असत्यभाषणादि से निवृत्त होना अथवा मौन धारण करना वचनगुप्ति है। 'धवला' में भी यही लक्षण दिया गया है। ‘ज्ञानार्णव' के अनुसार-“जिस मुनि ने वाणी की प्रवृत्ति भलीभाँतिवश कर ली है तथा जो समस्त संज्ञाओं का परिहार कर मौनारूढ़ हो जाता है, उस महामुनि के वचनगुप्ति होती है।" 'नियमसार' के अनुसार-पाप की हेतुभूत स्त्रीकथा, राजकथा, चोरकथा (देशकथा), भक्तकथा (भोजनादि की कथा) इत्यादिरूप वचनों (विकथाओं) का
१. आगन्तुक कर्मकचवर-निरोधः।
-आव. हरि. १०३ २. (क) जो रायादिणियत्तो मणुस्स जाणाहि तं मणोगुत्ती। .. (ख) सकल-मोह-राग-द्वेषाभावादखण्डाद्वैत-परमचिइ पे सम्यगवस्थितिरेव निश्चय मनोगुप्तिः।
-नियमसार मू. ता. वृ. ६९ (ग) कालुम्म मोह-मण्णा- गगटोमाद अ. अमुह भावाणं। - परिहारो मणगुत्तो ववहारणएण परिकहियं ॥
-वही मू. ता. वृ. ६६ (घ) विहाय सर्वसंकल्पान् राग-द्वेषावलम्वितान्।
स्वाधीनं कुरुते चेतः. समत्वे सुप्रतिष्ठितम् ॥१५॥ सिद्धान्तसूत्रविन्यासे शश्वत् प्रेरयतोऽथवा। भवत्यविकला नाम मनोगुप्तिर्मनीषिणः ॥१६॥
-ज्ञानार्णव १५-१६