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५४४ कर्म-विज्ञान : भाग-२ : कर्मों का आनव और संवर (६)
भगवान् द्वारा कर्मों के सर्वदिग्व्यापी स्रोतों से सावधान रहने का निर्देश
इसीलिए श्रमण भगवान् महावीर ने कर्म से मुक्ति चाहने वाले जिज्ञासु और मुमुक्षु साधकों को सभी दिशाओं (तीनों लोकों) में खुले हुए कर्मों के स्रोतों से सावधान करते हुए
___“साधको ! ऊपर (ऊर्ध्वलोक या ऊर्ध्वदिशा में) स्रोत (कर्मों के आगमन-आम्नव के द्वार) हैं, नीचे (अधोलोक या अधोदिशा में) ये स्रोत हैं, तथा मध्य (तिर्यदिशाओंमध्यलोक) में भी ये स्रोत हैं। ये स्रोत कर्मों के आगमनद्वार कहे गए हैं। इनके द्वारा तीनों लोकों को होने वाले कर्मसंग (राग-द्वेषादि या आसक्तिरूप भाव कर्म) को तुम देखो ! ये स्रोत अपने-अपने राग-द्वेष-मोह-कषाय-विषयासक्ति से निष्पन्न भावकों के आवर्त (भंवरजाल) रूप हैं। इनका सम्यक् प्रकार से निरीक्षण करके आगमज्ञ (ज्ञानी) साधक इन रागद्वेषादिजनित कर्मों के स्रोतों (भावकर्मानवों) से विरत हो जाए।"
आशय यह है कि कर्मों के आसव (आगमन) के स्रोत तीनों (ऊर्ध्व, अधो एवं मध्य) दिशाओं, अथवा तीनों लोकों में हैं। इन स्रोतों को बंद कर देने या बंद रखने से ही कर्मों का आम्नव बंद होगा-रुकेगा। (कर्मों का) आसव बंद होने से (कर्मों का) बन्ध नहीं होगा। अकर्मा का होने का उपाय : भगवान् द्वारा प्रतिपादित
___ इसीलिए भगवान ने इससे आगे के सूत्र में कहा-आसवों के इन (राग-द्वेषादि या मिथ्यात्व आदि) स्रोतों को (इस ओर से) हटाकर (आत्माभिमुख करके) या (संवरसाधना से) बन्द करके मोक्षमार्ग (कर्मों से मुक्त होने के पथ) पर निष्क्रमण करने वाला यह महान् साधक (एक दिन) अकर्मा (बन्धक कर्मों से रहित) हो जाता है। वह (कों के आसव की प्रक्रिया को और उनके स्रोतों को बन्द करने का उपाय जानता-समझता हुआ) (यतनापूर्वक प्रवृत्ति करता हुआ) ज्ञाता द्रष्टा हो जाता है। वह इनकी परिज्ञा या प्रतिलेखना करता हुआ कर्मों की गति-आगति का परिज्ञान करके इन कर्म-संगों (विषयसुखों) की आकांक्षा नहीं करता।" सर्वव्यापी कर्मपुद्गलों को आने से कैसे रोका जाए : एक चिन्तन
प्रश्न होता है-"इन चारों ओर फैले हुए सर्वव्यापी कर्मपुद्गलों को आने से कैसे रोका जाए ? कैसे इनसे मुँह मोड़ा जाए ? कैसे इनको दूर ठेल दिया जाए ?
१. उड्ढं सोता अहे सोता तिरियं सोता वियाहिया। एते सोया वियखाया जेहिं संगति पासहा ॥
आवट्टमेयं तु उवेहाए एत्थ विरमेज्ज वेयवी।-आचारांग श्रु. १ अ. ५, उ. ६ सू. ५८७-५८८ २. "विणएत्तु सोयं णिक्खम्म, एस महं अकम्मा जाणति पासति।" “पडिलेहाए णावकंखति, इह आगतिं गतिं परिण्णाय।"
-आचारांग श्रु. १ अ. ५ उ. ६ सू. ५८९-५९०
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