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होसकेगा । परंतु वैसा नहीं है । जैन सिद्धांत में सम्यग्दर्शन, ज्ञान व चारित्रको रत्नत्रयके नामसे कहा है । वे जिसप्रकार मिथ्यादर्शन ज्ञानचारित्ररूपी त्रिदोषोंको नाश करते हों इसीप्रकार रस, गंधक व पाषाण इन त्रिधातुवोंका अमृतीकरण कर तैयार होनेवाला रसायन वात, पित्त व कफरूपी त्रिदोषोंको दूर करता है । अतएव इस रसायनका नाम त्यौषध रक्खा गया है ।
इसी प्रकार औषध निर्माण के प्रमाण में भी जैनमत प्रक्रियाके अनुसार ही संकेत संख्यायोंका विधान किया है । जैसे रससिंदूर को तैयार करनेकेलिए कहा है कि " सूतकेसरिगंधकं मृगनवासारद्रुमं " | यहां विचारणीय विषय यह है कि यह प्रमाण किस प्रकार लिया हुआ है । जैन तीर्थंकरोंके भिन्न २ चिन्ह या लांछन हुआ करते हैं । उसके अनुसार जिन तीर्थकरों के चिन्हसे प्रमाणका उल्लेख किया जाय उतनी ही संख्या में प्रमाणका ग्रहण करना चाहिये । उदाहरणार्थ ऊपर के वाक्य में सूतं केसरि पद आया है । her sairat चिन्ह है, केसरि शब्दसे २४ संख्याका ग्रहण होना चाहिये । अर्थात् रस २४ गंधकं मृग अर्थात् मृग सोलहवें तीर्थंकरका चिन्ह होने से गंधक १६, इत्यादि प्रकारसे अर्थ ग्रहण करना चाहिये । समंतभद्र के प्रथमें सर्वत्र इसीप्रकार के सांकेतिक व पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है । रस सिंदूर के गुणको उन्होने सिद्धांत रसायन कल्प में निम्नप्रकार कहा है ।
सिद्र शुद्धस्तो विषधरशमनं रक्तरेणुश्च वर्ण । वातं पित्तन शीतं तपनिलसहितं विंशतिर्महत्रि । तृष्णादावार्तगुल्मं पिशगुदररजी पांडशोफोदराणां । कुष्टं चाष्टादशघ्नं सकलवणहरं सन्निशूलाग्रगंधि | दीपा धातुपुष्टं वडबशिखिकरं दीपनं पुष्टितेजं । बालीसौख्यसंगं जरमरणरुजाकांतिमायुःप्रवृद्धिं । वाचाशुद्धिं सुगानां ( 2 ) सकलरुजहरं देहशुद्धिं रसेंद्रे: ।
इन ग्रंथोंके पारिभाषिकशब्दों को स्पष्ट करने के लिए उसी प्रकारके कोषोंका भी जेवाचार्यांने निर्माण किया है । उस में इन पारिभाषिक शब्दों का अर्थ लिखा गया है। उपलब्ध कोषों में श्री आचार्य अमृतनंदि का कोप महत्वपूर्ण होने पर भी अपूर्ण है । इस कोष में बाईस हजार शब्द हैं फिर भी सकार में जाकर अपूर्ण होगया है । सकारके शब्दों को लिखते लिखते सप्त-सप्ति पर्यंत आचार्य लिख सके । बाद में ग्रंथपात होगया है । स, स से लेकर ह ळ क्ष पर्यंत के शब्दोंको वे क्यों नहीं लिख सके ? आयु का
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