Book Title: Jain Vidhi Vidhan Sambandhi Sahitya ka Bruhad Itihas Part 1
Author(s): Saumyagunashreeji
Publisher: Prachya Vidyapith Shajapur
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16/जैन विधि-विधानों का उद्भव और विकास
आचार्य हरिभद्र के ग्रन्थों में ही देखने को मिलता है उनमें भी पंचवस्तुक ग्रन्थ का स्थान प्राथमिक है। आचार्य हरिभद्र का ही पंचाशक प्रकरण जिसमें श्रावकधर्म-पंचाशक, दीक्षा-पंचाशक, वंदन-पंचाशक, पूजा-पंचाशक (इसमें विस्तार से जिन पूजा का उल्लेख है), प्रत्याख्यान-पंचाशक, स्तवन-पंचाशक, जिनभवन-निर्माण-पंचाशक, जिनबिंब-प्रतिष्ठा-पंचाशक, जिनयात्रा-विधान-पंचाशक, श्रमणोपासकप्रतिमा-पंचाशक, साधुधर्म-पंचाशक, साधूसामाचारी-पंचाशक, पिण्डविशुद्धि-पंचाशक, शीलअंग-पंचाशक, आलोचना-पंचाशक, प्रायश्चित्त-पंचाशक, दसकल्प-पंचाशक, भिक्षुप्रतिमा-पंचाशक, तप-पंचाशक आदि हैं। प्रत्येक पंचाशक ५०-५० गाथाओं में अपने-अपने विषय का विवरण प्रस्तुत करता है। इस पर चन्द्रकुल के नवांगी टीकाकार अभयदेवसूरि का विवरण भी उपलब्ध है।
इसके पश्चात् उमास्वाति के नाम से लगभग ११वीं शती का 'पूजाविधिप्रकरण' मिलता है। इसकी प्रामाणिकता के विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। उसके बाद पादलिप्तसूरि (११ वीं शती) की निर्वाणकालिका अपरनाम 'प्रतिष्ठाविधान' प्राप्त होता है। जैन धार्मिक क्रियाओं के सम्बन्ध में एक दूसरा प्रमुख ग्रन्थ 'अनुष्ठानविधि' है। यह धनेश्वरसूरि के शिष्य चन्द्रसूरि (१३ वीं शती) की रचना है। यह महाराष्ट्री प्राकृत में रचित है तथा इसमें सम्यकत्वआरोपणविधि, व्रतआरोपणविधि, पाण्मासिकसामायिकविधि, श्रावकप्रतिमा- वहनविधि, उपधानविधि, मालारोपणविधि, तपविधि, आराधनाविधि, प्रव्रज्याविधि, उपस्थापनाविधि, केशलोचविधि, पंचप्रतिक्रमणविधि, आचार्य, उपाध्याय एवं महत्तरा पद-प्रदानविधि, पौषधविधि, ध्वजारोपणविधि, कलशारोपणविधि आदि बीस प्रकार के विधि-विधान कहे गये हैं। प्रस्तुत कृति का अपरनाम सुबोधासामाचारी है। इस कृति के पश्चात तिलकाचार्य (१३ वीं शती) की 'समाचारी' नामक कृति भी लगभग इन्हीं विषयों का विवेचन करती है। इसमें कुल तैंतीस प्रकार के विधि-विधान निर्दिष्ट किये गये हैं।
इसके पश्चात् जिनप्रभसूरि (वि.सं.१३६३) की 'विधिमार्गप्रपा' भी उक्त विषयों का ही विवेचन करती है। लेकिन विधि-विधानों के बढ़ते हुए विकास क्रम की दृष्टि से देखें तो इसमें ४१ प्रकार के विधि-विधान निरूपित है और वे भी सुव्यवस्थित क्रम से दिये गये हैं। इन ४१ प्रकारों (द्वारों/प्रकरणों) में से प्रथम के १२ द्वारों का विषय मुख्य करके श्रावक जीवन के साथ सम्बन्ध रखने वाली क्रिया-विधियों से है, बारह से लेकर २६ वें द्वारा तक में विहित क्रिया विधियाँ प्रायः करके साधु जीवन के साथ सम्बन्ध रखती हैं और आगे के ३० वें द्वार से लेकर, अन्त के ४१ वें द्वार तक में वर्णित क्रिया विधान साधु और श्रावक दोनों के जीवन के साथ सम्बन्ध रखने
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