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धर्मका स्वरूप
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असत्य मान लें, तो भी वह अधर्म नहीं कहा जा सकता । जो भावुक हैं उनके लिये ईश्वर-कर्तृत्ववाद अधिक उपयोगी है । वे यह सोचते हैं कि ईश्वर के भरोसे सब छोड़ देने से हम निश्चिन्त हो जाते हैं, हममें कर्तृका अहंकार पैदा नहीं होता, पुण्य-पापका विचार रहता है । जो बुद्धिपर अधिक जोर देते हैं, वे तर्कसिद्ध न होने से ईश्वरको नहीं मानते । वे सोचते हैं कि ईश्वरको कर्ता न मानने से हम स्वावलम्बी बनते हैं— हम ईश्वरको प्रसन्न करने की कोशिश करनेकी अपेक्षा कर्तव्यको पूर्ण करनेका प्रयत्न करते हैं, हमारे पापोंको कोई माफ़ करनेवाला नहीं है, इस विचार से हमें पापसे भय पैदा होता है । जिस धर्म ईश्वरको माना है, उसने भी इसीलिये माना है कि मनुष्य पाप न करे | जिसने ईश्वरको नहीं माना, उसने भी इसीलिए नहीं माना कि मनुष्य पाप न करे । दोनोंका लक्ष्य एक है और दोनों ही प्राणियोंको सुखी बनाना चाहते हैं, और एक अंशमें उन्हें सफलता भी मिली है । इतना ही नहीं, परलोकको न माननेवाले नास्तिकोंने भी परलोकको नहीं माना, उसका कारण सिर्फ यही था कि मनुष्य-समाज सुखी रहे । जब परलोकके नामपर एक वर्ग लूट मचाने लगा और भोले भाले लोग ठगे जाने लगे, विवेकशून्य होकर दुःख सहनेको जब लोग पुण्य समझने लगे, तब नास्तिक धर्म पैदा हुआ । इस प्रकार आस्तिकताकी सीमापर पहुँचे हुए ईश्वरकर्तृत्ववादी और नास्तिकताकी सीमापर बैठे हुए परलोकाभाववादी, अपने अपने धर्मका प्रचार सिर्फ इसीलिये करते थे कि मनुष्य निष्पाप बने, एक प्राणी दूसरे प्राणीको न सतावे । यह हो सकता है कि इनमें से कोई धर्म कम सफल हो कोई अधिक, कोई अल्पकालिक हो