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धर्मका स्वरूप
जिस प्रकार वर्षाका शुद्ध जल दो तरहका नहीं होता, किन्तु पात्रोंके भेदसे उसमें भेद हो जाता है, उसीप्रकार धर्म दो तरहका नहीं होता; किन्तु पात्रोंके भेदसे या, द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावके भेदसे उसमें भेद होता है । द्रव्य-क्षेत्र-काल-भावका भेद, विरोधका कारण नहीं होता; इतना ही नहीं बल्कि इस प्रकारकी द्विविधताको हम दो धर्म भी नहीं कह सकते । वे एक ही धर्मके अनेक रूप हैं। दुनियामें अनेक धर्म हैं वैदिक,-जैन, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम आदि । परन्तु जिस प्रकार इन धर्मोके सम्प्रदाय हैं, उस प्रकार अहिंसाधर्म, सत्यधर्म, अक्रोधधर्म, विनयधर्म आदिके सम्प्रदाय नहीं हैं । मैं जैन हूँ, तू बौद्ध है, इस प्रकारके धर्माभिमानसे लोग लड़े हैं; परन्तु मैं अहिंसाधर्मी हूँ, तू सत्यधर्मी है, इस प्रकारके धर्माभिमानसे कोई नहीं लड़ा। हर एक धर्म अपनेको न्यूनाधिक रूपमें अहिंसा, सत्य आदिका पोपक कहता है । इससे मालूम होता है कि अहिंसा, सत्य आदि असली धर्म हैं और इनमें विरोध नहीं है। विरोध है उसके विविध रूपोंमें अर्थात् सम्प्रदायोंमें । कहनेका तात्पर्य यह है कि धर्म सुखके लिए है और विविध सम्प्रदाय धर्मके लिए हैं । सम्प्रदाय स्वयं परिपूर्ण धर्म नहीं हैं-वे अहिंसा आदि धर्मोंके लिए हैं। हमने धर्मके लिए उत्पन्न होनेवाले या उसके एक रूपको बतलानेवाले सम्प्रदायोंको धर्म कहा, इसलिए धर्मोकी विविधताकी समस्या हमारे सामने खड़ी होती है । ___ जुदे जुदे धर्मोमें जो हमें परस्पर विरोध मालूम होता है वह अनेकान्त, स्याद्वाद या सम-भावके न प्राप्त करनेका फल है । मैं यह नहीं कहता कि प्रत्येक धर्मका प्रत्येक सिद्धान्त वैज्ञानिक