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सत्यं शिवं सुन्दरम्
जैनधर्म-मीमांसा
प्रथम अध्याय
धर्मका स्वरूप
विविधताका रहस्य धर्म क्या है ? धर्म-संस्था जगतमें क्यों आई ? धर्मोमें परस्पर भिन्नता क्यों है ? इत्यादि अनेक प्रश्न प्रत्येक विचारशील हृदयमें उठा करते हैं । और जब वह यह देखता है कि धर्मसरीखी पवित्र वस्तुके नामपर खूनकी नदियाँ बही हैं, मनुष्यकी और मनुष्यताकी दिन-दहाड़े हत्या हुई है, तब उसका हृदय संतापसे जलने लगता है और कभी कभी उसे धर्भसे घृणा हो जाती है। परन्तु हम धर्मसे घृणा करें, इसीसे धर्म नष्ट न हो जायगा । अगर हम अपने समयकी धर्म-संस्थाओंको नाश करनेका प्रयत्न करें, तो हमारा यह प्रयत्न करीब करीब असफल ही होगा। धर्म किसी न किसी रूपमें जीवित ही रहेगा । मनुष्यके पास जब तक हृदय है और उसमें