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जैन आगम ग्रन्थों में पञ्चमतवाद
तक पहुँचाने में बहुत सहायक रही है। तथा उस व्याख्या विवेचन का मैंने प्रस्तुत शोध में यथावसर कहीं अधिक तो कहीं अल्प रूप में उपयोग किया है।
जिन मतवादों की इस शोध में चर्चा है, उनके बारे में आगम साहित्य के उल्लेख के साथ-साथ आगमिक व्याख्या साहित्य तथा जैन आगमों के समकालीन बौद्ध आगमों तथा आगम साहित्य से पूर्व जहाँ इन मतवादों का उल्लेख हुआ है, उसे दर्शाया गया है। इस प्रकार इस शोध-कार्य में आगमिक परम्परा में आगम ग्रन्थों को जिस क्रम से निर्धारित किया गया है-अंग, उपांग, छेद, मूल, आवश्यक तथा उसके व्याख्या साहित्य के साथ जैन आगम ग्रन्थों के समकालीन बौद्ध साहित्य तथा उसके पूर्ववर्ती वैदिक साहित्य में जहाँ कहीं इन मतवादों से सम्बन्धित विषय उपलब्ध हुआ, उसे इस शोधकार्य में आवश्यकतानुसार ऐतिहासिक कालक्रम को ध्यान में रखते हुए विवेचित किया है।
वस्तुतः किसी मत या दर्शन प्रणाली विशेष को लेकर किसी निश्चित काल और समय में उसकी व्याख्या सरलता से नहीं की जा सकती। क्योंकि वह पूर्वकाल की विकसित दर्शन परम्परा उत्तरकाल अवस्था में समाप्त नहीं हो जाती बल्कि उत्तरकाल में वह दार्शनिक प्रणाली और अधिक तर्कसंगत और व्यापक हो जाती है। यद्यपि यह उस स्थिति में बहुत आवश्यक हो जाता है, जब एक । दार्शनिक मत लुप्त होकर दूसरे दार्शनिक मत को समादर देता है तब यह खोज करना कि कौनसा मत किस मत से पहले उद्भूत या उत्पन्न हुआ। किन्तु यह उस स्थिति में अत्यन्त जटिल होता है जबकि दर्शन की प्रणालियाँ एक साथ ही विकास की ओर उन्मुख हो रही हो, तब विभिन्न मतों के विकास को कालक्रम में बांधकर अध्ययन करना अर्थपूर्ण नहीं रहता। ऐतिहासिक और साहित्यिक साक्ष्य के आधार पर विभिन्न दार्शनिक मत-मतान्तरों की उत्पत्ति और विकास के सम्बन्ध में तुलनात्मक और पारस्परिक अध्ययन के लिए पर्याप्त सामग्री मिल जाती है।
मैंने इस प्रयास से पूर्ण रूप से बचने की कोशिश की है कि किसी भी भारतीय मत या मत प्रवर्तक का पाश्चात्य मत या मत प्रवर्तक से तुलना की । जाए, क्योंकि यह मेरे शोध विषय से बाहर की वस्तु है। किन्तु यह भी सत्य है कि ऐसी बहुत-सी पाश्चात्य अवधारणाएँ हैं, जो पूर्व अवधारणाओं में या उनके साहित्य में व्यापक रूप से पाई जाती हैं।