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ज्ञानानन्द श्रावकाचार ।
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अनुभव करै तैसे ही महामुनि अपना ज्ञान ध्यान निधिको छिपावता फिरै है अर एकान्त हीमें वाका अनुभव किया चाहै है। अरु ऐसा विचार है कि म्हाकी ज्ञान ध्यान निधि जाती न रहै अरु म्हाका ज्ञान भोगमैं अंतर न परे, तिहि वास्तै महा मुनि कठिन कठिन स्थामक विषै वसै हैं । जेठे मनुष्यका संचार नहीं तेठे वसे हैं अरु मुनिनै पर्वत गुफा नदी मसान बन ऐसा लागे है मानौ ध्यान ध्यान ही प्रकार है। कहा कहि पुकार है कहै आवो आवो यहां ध्यान करौ ध्यान करौ निजानंद स्वरूपनै बिलासौ विलासौ । थाको उपयोग स्वरूप विषै बहुत लागसी तीसौं और मत विचारौ ऐसे कहै है। बहुर शुद्धोपयोगी मुनि घनौ पवन चालै तेठे, अर घना घाम होई तेसै वा घना मुनुष्यांका संचार होई तेह्र जोरावरीतें नहीं वसै है । क्यों नाहीं वसै है मुन्याका अभिप्राय एक ध्यानाध्यन करि वांकी ही ऐ । जेठे ध्यामाध्यन घनौ वधै तेठे ही वगै। कोई या जानैगा कि मुनि सर्व प्रकार ऐसा कठिन कठिन स्थानक विर्षे ही बसै अर स्वतः चाहि चाहि परीषहनको सहै अर एता दुद्धर तपश्चरन करै है । अर सास्वता ध्यानमई ही हैं सो यूतौ नाहीं । कारण कि मुन्याकै बाह्य क्रियासूं तौ प्रनोजन है नाहीं, अर अठाईस मूल गुन ग्रहन किया है तानै सिला ऊपर वा पर्वतके सिखिर विर्षे ध्यान धरै वा चौमासेमें वृक्ष्यांके तलै ध्यानको धेरै
ही तौ अपनै परनामाकी विशुद्धताकै अनुसार धरै है। - अत्यंत विरक्त होय तौ ऐसी जागै ध्यान धरै । नाहीं तौ
और ठौर मन लागै जेठे ध्याण धेरै अर साम्हा आया उपसर्गको