________________
धर्मामृत (अनगार) पित्र्यैः-पितृभ्यामागतैः आभिजनैरित्यर्थः । वैनयिकैः-शिक्षाप्रभवैराहार्यरित्यर्थः । तत्र विक्रमसौन्दर्यप्रियंवदत्वादयः सहजाः कलाचर्या मैत्र्यादयः आहार्याः गोष्ठीनिष्ठरसैः-लक्षणया सदा समदितः । ३ पृथक्-एकैकशः । पीयते-अत्यन्तमालोक्यते ॥३१॥ अथैवं पुण्यवतः स्वगतां गुणसंपत्ति प्रदर्य कान्तागतां तां प्रकाशयतिसाध्वीस्त्रिवर्गविधिसाधनसावधानाः,
कोपोपदंशमधुरप्रणयानुभावाः । लावण्यवारितरगात्रलताः समान
सौख्यासुखाः सुकृतिनः सुदृशो लभन्ते ॥३२॥ [ ] ९ . लावण्यवारितराः-अतिशायिनि कान्तिमत्त्वे जलवद्व्यापिनि तरन्त्य इव लता । प्राशस्त्यं कार्यं वा
द्योतयतीदम् । असुख-दुःखम् । तच्चात्र प्रणयभङ्गादिकृतमेव न व्याध्यादिनिमित्तं तस्य कृतपुण्येष्वसंभवात् । यदि वा संसारे सुखदुःखे प्रकृत्या सान्तरे एव । तथा च लोकाः पठन्ति
सुखस्यानन्तरं दुःखं दुःखस्यानन्तरं सुखम् । सुखं दुःखं च मानां चक्रवत्परिवर्तते ॥३२॥
१२
राग पूर्वक देखा जाता है और उसका चित्त सच्चे प्रेमी रसिक मित्रोंके साथ होनेवाले सरस वार्तालापसे सदा आनन्दित रहता है ॥३१॥
विशेषार्थ-गुण दो तरहके होते हैं-कुलक्रमसे आये हुए और शिक्षासे प्राप्त हुए। पराक्रम, सौन्दर्य और प्रियवादिता आदि तो कुलक्रमागत गुण हैं। लिखना, पढ़ना, गायन, प्रातःकाल उठकर देवपूजा आदि करना, आचार, ये शिक्षासे प्राप्त होनेवाले गुण हैं । तथा कान्तासे मतलब अपनी पत्नीसे है जो पवित्र नागरिक आचारसे सम्पन्न हो, तथा चरित्र, सरलता, क्षमा आदिसे भूषित हो, अवस्थाके अनुसार वह बाला युवती या प्रौढ़ा हो सकती है। उक्त इलोकके द्वारा ग्रन्थकारने सद्गुणोंकी प्राप्ति और सच्चे गुणी मित्रोंकी गोष्ठी तथा सद्गुणोंसे युक्त पत्नीकी प्राप्तिको पुण्यका फल कहा है और जिसे वे प्राप्त हैं उस पुरुषको धन्य कहा है । जो लक्ष्मी पाकर कुसंगतमें पड़ जाते हैं जिनमें न कुलीनता होती है और न सदाचार, जो सदा कुमित्रोंके संग रमते हैं, शराब पीते हैं, वेश्यागमन करते हैं वे पुण्यशाली नहीं हैं, पापी हैं। सच्चा पुण्यात्मा वही है जो पुण्यके उदयसे प्राप्त सुखसुविधाओंको पाकर भी पुण्य कर्मसे विमुख नहीं होता । कुसंगति पुण्यका फल नहीं है, पापका फल है। ____ इस प्रकार पुण्यवान्की स्वयंको प्राप्त गुणसम्पदाका कथन करके दो इलोकोंके द्वारा स्त्रीविषयक गुणसम्पदाको बतलाते हैं
पुण्यशालियोंको ऐसी स्त्रियाँ पत्नी रूपसे प्राप्त होती हैं जो सुलोचना, सीता, द्रौपदीकी तरह पतिव्रता होती हैं, धर्म, अर्थ और कामका शास्त्रोक्त विधिसे सम्पादन करनेमें सावधान रहती हैं-उसमें प्रमाद नहीं करतीं, जिनके प्रेमके अनुभाव-कटाक्ष फेकना, मुसकराना, परिहासपूर्वक व्यंग वचन बोलना आदि-बनावटी कोपरूपी स्वादिष्ट व्यंजनसे मधुर होते हैं, जिनकी शरीररूपी लता लावण्यरूपी जलमें मानो तैरती है अर्थात् उनका शरीर लताकी तरह कोमल और लावण्यसे पूर्ण होता है, तथा जो पतिके सुखमें सुखी और दुःखमें दुःखी होती हैं ॥३२।।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org