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धर्मामृत (अनगार) सत्त्वं रेतश्छलात् पुंसां घृतवद् द्रवति द्रुतम् ।
विवेकः सूतवत्वापि याति योषाग्नियोगतः ॥८५॥ सत्त्वं-मनोगुणः । द्रवति-विलीयते ।।८५॥ अथ कामिनीचेष्टाविशेषो महामोहावेशं करोतीति वक्रभणित्या बोधयति
वैदग्धीमयनर्मवक्रिमचमत्कारक्षरत्स्वादिमाः
सभ्रूलास्यरसाः स्मितद्युतिकिरो दूरे गिरः सुभ्रवाम् । तच्छ्रोणिस्तनभारमन्थरगमोद्दामक्वणन्मेखला,
___ मञ्जीराकुलितोऽपि मक्षु निपतेन्मोहान्धकूपे न कः ॥८६॥ वैदग्धी-रसिकचेष्टा । स्वादिमा-माधुर्यम् । लास्यं-मसृणनृत्यम् । स्मितद्युतिकिर:-ईषद्धसितकान्तिप्रस्तारिण्यः ॥८६॥ अथ स्त्रीसंकथादोषं कथयति
सम्यग्योगाग्निना रागरसो भस्मीकृतोऽप्यहो।
उज्जीवति पुनः साधोः स्त्रीवासिद्धौषधीबलात् ॥८७॥ योगः-समाधिः प्रयोगश्च । रसः-पारदः ॥८७॥ अथोत्तमस्त्रीपरिरम्भानुभावं भावयति
पश्चाद बहिर्वरारोहाटो:पाशेन तनीयसा।
बध्यतेऽन्तः पुमान् पूर्व मोहपाशेन भूयसा ॥८॥ स्त्री अग्निके तुल्य है। जैसे अग्निके सम्पर्कसे तत्काल घी पिघलता है और पारा उड़ जाता है वैसे ही स्त्रीके सम्पर्कसे मनुष्योंका मनोगुण सत्त्व वीयके छलसे विलीन हो जाता है और युक्त-अयुक्तका विचारज्ञान न जाने कहाँ चला जाता है ।।८५॥
कामिनियोंकी विशेष चेष्टाएँ महामोहके आवेशको उत्पन्न करती हैं यह बात वक्त्रोक्तिके द्वारा समझाते हैं
रसिक चेष्टामय परिहास और कुटिलतासे आश्चर्यके आवेशमें माधुर्यको बहानेवाली, भ्रकुटियोंके कोमल नर्तनके रससे युक्त और मन्द-मन्द मुसकराहटकी किरणोंको इधर-उधर बिखेरनीवाली, कामिनियोंकी वाणीसे तो दूर ही रहो, वे तो मोक्षमार्गकी अत्यन्त प्रतिबन्धिनी हैं ही. उनके कटि और स्तनके भारसे मन्द-मन्द गमन करनेसे बेरोक डाब्द करधनी और पायलोंसे आकुल हुआ कौन मनुष्य तत्काल ही मोहरूपी अन्धकूपमें नहीं गिरता । अर्थात् मुमुक्षुको स्त्रीसे वार्तालाप तो दूर, उनके शब्द-श्रवणसे भी बचना चाहिए ॥८६।।
स्त्रियोंसे वार्तालाप करनेके दोष बतलाते हैं
आश्चर्य है कि जैसे अग्निसे भस्म हुआ भी पारा उसको जिलानेमें समर्थ औषधिके बलसे पुनः उज्जीवित हो जाता है वैसे ही समीचीन समाधिके द्वारा भस्म कर दिया गया भी साधुका राग स्त्रीके साथ बातचीत करनेसे पुनः उज्जीवित हो जाता है ।।८।।
कामिनीके आलिंगनका प्रभाव बतलाते हैं___ पहले तो पुरुष अपनी आत्मामें बड़े भारी मोहपाशसे बँधता है। मोहपाशसे बँधने के पश्चात् बाहरमें सुन्दर स्त्रीके कोमल बाहुपाशसे बँधता है। अर्थात् अन्तरंगमें मोहका उदय
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