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धर्मामृत (अनगार )
'आचेलक्यौदेशिक शय्यागृहराजपिण्डकृतिकर्मं । ज्येष्ठव्रत प्रतिक्रममासं पाद्यं श्रमणकल्पः ॥ एतेषु दशसु नित्यं समाहितो नित्यवाच्यताभीरुः । क्षपकस्य विशुद्धिमसौ यथोक्तचर्यां समुद्दिशति ॥' [ अथ प्रतिमायोगस्थितस्य मुनेः क्रियाविधिमाह
लघीय सोऽपि प्रतिमायोगिनो योगिनः क्रियाम् । कुर्युः सर्वेऽपि सिद्धषिशान्तिभक्तिभिरादरात् ॥८२॥
अपराजित सूरिने तो लिखा है- 'पज्जो समण कप्पो नाम दशमः,' वर्षाकालस्य चतुर्षु मासेसु एकत्रैवावस्थानं भ्रमणत्यागः । इनके अर्थ में भेद नहीं है । किन्तु इससे आगे ग्रन्थकारों ने दसवें कल्पका नाम केवल 'पज्जो' ही समझ लिया। पं. आशाधरजीने अपनी मूलाराधना में 'पज्जो' का ही अर्थ वर्षाकालके चार मासोंमें एक जगह रहना किया है। किन्तु यह पूरा अर्थ 'पज्जोसar' से निष्पन्न होता है । 'परि' उपसर्ग पूर्वक 'वस' से प्राकृतका पज्जोसवण शब्द बना है । मूलाचार के टीकाकार वसुनन्दि आचार्यने 'मासं पज्जो' का विचित्र ही अर्थ किया है - 'मासोः योगग्रहणात् प्राङ्मासमात्रमवस्थानं कृत्वा वर्षाकाले योगो ग्राह्यस्तथा योगं समाप्य मासमात्रमवस्थानं कर्तव्यम् ।' अर्थात् 'वर्षायोग ग्रहण करनेसे पहले एक मास ठहरना चाहिए । उसके बाद वर्षाकाल आनेपर योग ग्रहण करना चाहिए। तथा योगको समाप्त करके एक मास ठहरना चाहिए ।'
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ऐसा क्यो करना चाहिए यह बतलाते हुए वह लिखते हैं- लोगों की स्थिति जानने के लिए और अहिंसा आदि व्रतोंके पालनेके लिए वर्षायोगसे पहले एक मास ठहरना चाहिए और वर्षायोग बीतनेपर भी एक मास और ठहरना चाहिए जिससे श्रावक लोगोंको मुनि वियोगका दुःख न हो। आगे अथवा देकर दूसरा अर्थ करते हैं कि प्रत्येक ऋतु में एक-एक मास मात्र ठहरना चाहिए और एक मास विहार करना चाहिए। यह मास नामक श्रमण कल्प है । इसके बाद अथवा करके तीसरा अर्थ करते हैं - अथवा वर्षाकालमें योग ग्रहण करना और चार-चार मास में नन्दीश्वर करना यह मास श्रमणकल्प है ।
इस तरह वसुनन्दिजीने दसवें कल्पका जो अर्थ है उसे नवम कल्पका ही अर्थ मान लिया है । अब दसवेंका अर्थ करते हैं- 'पज्जो - पर्या पर्युपासनं निषद्यकायाः पञ्चकल्याणस्थानानां च सेवनं पर्युत्युच्यते, श्रमणस्य श्रामणस्य वा कल्पो विकल्पः श्रमणकल्पः ।' अर्थात् 'पज्जो' का संस्कृत रूप होता है 'पर्या' । उसका अर्थ है अच्छी तरह उपासना करना अर्थात् निषद्याओंका और पंचकल्याण स्थानोंका सेवन करना । यह पज्जो नामक श्रमणोंका कुल्प है । इस तरह 'पज्जोसवणकप्पो' में से पज्जोको अलग करके और 'सवण'को श्रमण मानकर दसवें कल्पके नामका विपर्यास हो गया है ।
पं. आशाधरजी तो वसुनन्दिके पश्चात् हुए हैं किन्तु उन्होंने मासकल्पका अर्थ आगमानुकूल ही किया है । तथा दसवें कल्पका नाम योग अर्थात् वर्षायोग रख दिया है । इस तरह वसुनन्दी आचार्यकी तरह उनके अभिप्रायमें अन्तर नहीं है ॥८०-८१ ॥
आगे प्रतिमायोगसे स्थित मुनिकी क्रियाविधि कहते हैं
दिन-भर सूर्य की तरफ मुख करके कायोत्सर्गसे स्थित रहनेको प्रतिमायोग कहते हैं । प्रतिमायोग धारण करनेवाला साधु यदि दीक्षा में लघु हो, तब भी सभी अन्य साधुओंको
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