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नवम अध्याय
कारणापेक्षया हीनमधिकं वाऽत्रस्थानम् । संयतानामाषाढशुद्धदशम्याः प्रभूति स्थितानामुपरिष्टाच्च कार्तिकपौर्णमास्यास्त्रिशद्दिवसावस्थानम् । वृष्टिबहुलतां श्रुतग्रहणं शक्त्यभावं वैयावृत्यकरणं प्रयोजनमुद्दिश्यावस्थानमेकवेत्युत्कृष्टः कालः । मायाँ दुर्भिक्षे ग्रामजनपदचलने वा गच्छन्निमित्ते समुपस्थिते देशान्तरं गति । अवस्थाने ३ सति रत्नत्रयविराधना भविष्यतीति पौर्णमास्यामाषाढ्यामतिक्रान्तायां प्रतिपदादिषु दिनेषु याति यावच्चत्वारो दिवसाः। एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य । एष दशमः स्थितिकल्प इत्याराधनाटीकायाम् । तट्टिपणके तु द्वाभ्यां द्वाभ्यां मासाभ्यां निषिद्धिका द्रष्टव्येति पाद्यो नाम दशमः स्थितिकल्पः व्याख्यातः । उक्तं च
छह ऋतुओंमें एक स्थान पर एक ही मास रहना अन्य समयमें विहार करना यह नौवाँ स्थितिकल्प है। पं. आशाधरजीने दसवें कल्पका नाम वार्षिक योग कहा है। वर्षाकालके चार मासोंमें एक ही स्थानपर रहना दसवाँ स्थिति कल्प है क्योंकि वर्षा ऋतु में पृथ्वी स्थावर और जंगम जीवोंसे भरी होती है। उस समय भ्रमण करने में महान् असंयम होता है। इसके साथ ही वर्षासे तथा शीत झंझावातसे अपनी भी विराधना होती है। जलाशय वगैरह में गिरनेका भय रहता है। पानीमें छिपे ह्ठ काँटे वगैरहसे भी तथा कीचड़से भी बाधा होती है। इस समयमें एक सौ बीस दिन तक एक स्थानपर रहना चाहिए यह उत्सर्ग है। विशेष कारण होनेपर अधिक और कम दिन भी ठहर सकते हैं। अर्थात् जिन मुनियोंने आषाढ शक्ला दसमीसे चतर्मास किया है वे कार्तिककी पर्णमासीके बाद तीस दिन तक आगे भी उसी स्थानपर ठहर सकते हैं। ठहरनेके कारण हैं वर्षाकी अधिकता, शास्त्राभ्यास, शक्तिका अभाव या किसीकी वैयावृत्य करना । यह ठहरनेका उत्कृष्ट काल है। यदि दुर्भिक्ष पड़ जाये, महाभारी फैल जाये, गाँव या प्रदेशमें किसी कारणसे उथल-पुथल हो जाये तो मुनि देशान्तरमें जा सकते हैं। क्योंकि ऐसी स्थितिमें वहाँ ठहरनेसे रत्नत्रयकी विराधना होगी। इस प्रकार आषाढ़की पूर्णमासी बीतनेपर प्रतिपदा आदिके दिन जा सकते हैं।
पं. आशाधरजीने दस कल्पोंकी व्याख्या अपनी संस्कृत टीकामें भगवती आराधनाकी अपराजित सूरि कृत टीकाके अनुसार ही की है। किन्तु वर्षावासमें हीन दिनोंके प्रमाणमें दोनोंमें अन्तर है। दोनों लिखते हैं कि आषाढ़ी पूर्णिमा बीतनेपर प्रतिपदादिको जा सकते हैं किन्तु आशाधरजी चार दीन हीन करते हैं यथा-'पौर्णमास्यामाषाढ्यामतिक्रान्तायां प्रतिपदादिष दिनेष याति यावच्चत्वारो दिवसाः। एतदपेक्ष्य हीनता कालस्य ।' और अपराजित सूरि बीस दिन कम करते हैं। यथा-'यावच्च त्यक्ता विंशतिदिवसा एतदपेक्ष्यहीनता कालस्य ।' श्वेताम्बर परम्परामें भी वर्षायोगका उत्कृष्ट काल आषाढ़ पूर्णिमासे लेकर कार्तिक पर्यन्त चार मास कहा है। और जघन्य काल भाद्र शुक्ला पंचमीसे कार्तिक पूर्णिमा पर्यन्त सत्तर दिनरात कहा है। इसके सिवाय इस दसवें स्थितिकल्पके नाममें भी अन्तर है। दस कल्पोंके नामोंको बतलानेवाली गाथा दोनों सम्प्रदायोंमें भिन्न नहीं है। उसका अन्तिम चरण है 'मासं पज्जोसवणकप्पो,' श्वेताम्बर परम्पराके अनुसार दसवें कल्पका नाम 'पज्जोसवण' है। इसका संस्कृत रूप होता है 'पर्युषणा कल्प' । अर्थात् साधु जो वर्षायोग करते हैं वह पर्युषणा कल्प है। दिगम्बर परम्परामें इसीसे भाद्रमासके अन्तिम दस दिनोंके पर्वको पर्युषण पर्व भी कहा जाता है। किन्तु भगवती आराधना और मूलाचारमें पज्जो और सवणको अलग-अलग मानकर अर्थ किया गया है। भगवती आराधनाके टीकाकार
१. 'चाउम्मासुक्कोसे सत्तरिराईदिया जहण्णेण ।'-बृ. कल्पसूत्र भाष्य-६४३६ गा.।
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