Book Title: Dharmamrut Anagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 750
________________ नवम अध्याय ६९३ पुरुरिव-आदिनाथो यथा। सुपटुशिष्याः-ऋजुवक्रजडत्वाभावात् सुष्ठु पटवो शिष्या येषाम् ॥८ ॥ अथ जिनमुद्रायोग्यतास्थापनामुपदिशति सुदेशकुलजात्यङ्गे ब्राह्मणे क्षत्रिये विशि । निष्कलङ्के क्षमे स्थाप्या जिनमुद्राचिता सताम् ॥८॥ निष्कलङ्क-ब्रह्महत्याद्यपवादरहिते । क्षमे-बालत्ववृद्धत्वादिरहिते । उक्तं च 'ब्राह्मणे क्षत्रिये वैश्ये सुदेशकुलजातिजे । अर्हतः स्थाप्यते लिङ्गं न निन्द्यबालकादिषु ॥ पतितादेन सा देया जैनीमुद्रा बुधाचिता। रत्नमालां सतां योग्या मण्डले न विधीयते ।। तीर्थंकरोंके शिष्य सरल होनेके साथ बुद्धिमान् थे। सामायिक कहनेसे समझ जाते थे। अतः बाईस तीर्थंकरोंने व्रतादिके भेदपूर्वक सामायिकका कथन नहीं किया ॥८७॥ विशेषार्थ-असलमें सर्व सावद्य योगके प्रत्याख्यानरूप एक महाव्रतके ही भेद अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह हैं और उसीके परिकर पाँच समिति आदि शेष मूलगुण हैं। इस तरह ये निर्विकल्प सामायिक संयमके ही भेद हैं। जब कोई मुनिदीक्षा लेता है तो निर्विकल्प सामायिक संयम ही पर आरूढ़ होता है। किन्तु अभ्यास न होनेसे जब उससे च्युत होता है तब वह भेदरूप व्रतोंको धारण करता है और वह छेदोपस्थापक कहलाता है। इस छेदोपस्थापना चारित्रका उपदेश केवल प्रथम और अन्तिम तीर्थकरने ही दिया क्योंकि प्रथम तीर्थंकरके साधु अज्ञानी होनेसे और अन्तिम तीर्थंकरके साधु अज्ञानी होनेके साथ कुटिल होनेसे निर्विकल्प सामायिक संयममें स्थिर नहीं रह पाते थे तब उन्हें व्रतोंको छेदकर दिया जाता है। कहा है-बाईस तीर्थकर केवल सामायिक संयमका ही उपदेश करते हैं किन्तु भगवान् ऋषभ और भगवान् महावीर छेदोपस्थापनाका भी कथन करते हैं ।।८७॥ जिनलिंग धारण करनेकी योग्यता बतलाते हैं जिनमुद्रा इन्द्रादिके द्वारा पूज्य है। अतः धर्माचार्योंको प्रशस्त देश, प्रशस्त वंश और प्रशस्त जातिमें उत्पन्न हुए ब्राह्म ग, क्षत्रिय और वैश्यको, जो निष्कलंक है, ब्रह्महत्या आदिका अपराधी नहीं है तथा उसे पालन करने में समर्थ है अर्थात् बाल और वृद्ध नहीं है उसे ही जिनमुद्रा प्रदान करना चाहिए । वही साधु पदके योग्य है ।।८८॥ विशेषार्थ-जिनमुद्राके योग्य तीन ही वर्ण माने गये हैं-ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य । आचार्य सोमदेवने भी ऐसा ही कहा है-आचार्य जिनसेनने कहा है जिसका कुल और १. ब्राह्मणहत्याद्यपराधरहिते भ. कु. च. । २. 'बावीसं तित्थयरा सामायिय संजमं उवदिसंति । छेदुवठावणियं पुण भयवं उसहो य वीरो य॥-मूलाचार ७१३६ ३. 'विशुद्धकुलगोत्रस्य सद्वृत्तस्य वपुष्मतः । दीक्षायोग्यत्वमाम्नातं सुमुखस्य सुमेधसः' ॥-महापु. ३९।१५८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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