Book Title: Dharmamrut Anagar
Author(s): Ashadhar
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 755
________________ ६९८ धर्मामृत ( अनगार) अथ किमर्थ स्थितिभोजनमनुष्ठीयत इत्याह यावत्करौ पुटीकृत्य भोक्तुमुद्भः क्षमेऽम्यहम् । तावन्नवान्यथेत्यागूसंयमार्थ स्थिताशनम् ।।९३॥ पुटीकृत्य-भाजनीकृत्य संयोज्य वा। क्षमे-शक्नोम्यहम् । अमि-भुले। आगूसंयमार्थएवंविधप्रतिज्ञार्थमिन्द्रियप्राणसंयमार्थं च । उक्तं चाचारटीकायाम्-'यावद् हस्तपादौ मम संवहतस्तावदाहारग्रहणं योग्यं नान्यथेति ज्ञापनार्थ स्थितस्य हस्ताभ्यां भोजनम् । उपविष्टः सन् भाजनेनान्यहस्तेन वा न भुजेऽहमिति प्रतिज्ञार्थं च । अन्यच्च स्वकरतलं शुद्धं भवति । अन्तराये सति बहोविसर्जनं च न भवति । अन्यथा पात्रीं सर्वाहारपूर्णा त्यजेत् । तत्र च दोषः स्यात । इन्द्रियसंयमप्राणिसंयमपरिपालनाथं च स्थितस्य भोजनमुक्तमिति ।'-मूलाचार टी. गा. ४४ । एतदेव चान्यैरप्यन्वाख्यायि 'यावन्मे स्थितिभोजनेऽस्ति दृढता पाण्योश्च संयोजने, भुजे तावदहं रहाम्यथ विधावेषा प्रतिज्ञा यतेः।। कायेऽप्यस्पृहचेतसोऽन्त्यविधिषु प्रोल्लासिना सम्मते नं ह्येतेन दिवि स्थितिर्न नरके संपद्यते तद्विना ।।' [ पद्म. पञ्च. ११४३ ] ॥१३॥ अन्तराय होते हैं तो उन्हें अन्तराय नहीं माना जाता। यदि वैसा माना जावे तो साधुको भोजन ही करना दुर्लभ हो जाये। किन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि जबतक साधु सिद्धभक्ति रता तबतक बैठकर और पुनः खडा होकर भोजन कर सकता है, मांस आदि देख लेनेपर तथा रोदन आदिका शब्द' सुनकर भी भोजन कर सकता है अर्थात् ऐसी घटनाएँ यदि सिद्धभक्ति करनेसे पहले होती हैं तो उन्हें अन्तराय नहीं माना गया। दूसरे मूलगुण एकभक्तके सम्बन्धमें ग्रन्थकार आगे स्वयं विशेष कथन करेंगे ॥१२॥ __ आगे खड़े होकर भोजन करनेका क्या कारण है, यह बतलाते हैं दोनों हाथोंको मिलाकर तथा खड़े होकर भोजन करने में जबतक में समर्थ हूँ तबतक भोजन करूँगा, अन्यथा नहीं करूँगा, इस प्रकारकी प्रतिज्ञाके निर्वाह के लिए तथा इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयमके लिए मुनि खड़े होकर भोजन करते हैं ॥१३॥ विशेषार्थ-मूलाचार ( गा. ३४) की टीकामें कहा है-जबतक मेरे हाथ-पैर समर्थ हैं तबतक मैं आहार ग्रहण करनेके योग्य हूँ अन्यथा नहीं, यह बतलानेके लिए खड़े होकर हाथमें भोजन करना कहा है। तथा में बैठकर पात्र में या दूसरेके हाथसे भोजन नहीं करूँगा, इस प्रतिज्ञाकी पूर्ति के लिए भी उक्त प्रकारसे भोजन कहा है। दूसरे अपनी इथेली शुद्ध होती है। यदि भोजनमें अन्तराय हो जाये तो बहुत जूठन छोड़ना नहीं पात्र में करनेपर यदि अन्तराय आ जाये तो भरी थाली भी छोडनी पड़ सकती है। और इसमें बहुत दोष है। इसके साथ ही इन्द्रियसंयम और प्राणिसंयमका पालन करनेके लिए भी खड़े होकर भोजन करना कहा है। बैठकर आरामसे भोजन करनेपर अधिक भोजन भी हो सकता है । और ऐसी अवस्थामें अन्नका मद इन्द्रियोंको सशक्त बना सकता है। पद्म. पंच. में कहा है-'जबतक मुझमें खड़े होकर भोजन करने तथा दोनों हाथोंको जोड़कर रखनेकी दृढ़ता है तबतक मैं भोजन करूँगा, अन्यथा आहारको छोड़ दूंगा। यह मुनिकी प्रतिज्ञा होती है। क्योंकि मुनिका चित्त अपने शरीरमें भी निस्पृह होता है और भोजन For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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